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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ हुआ । परन्तु आशादास का गीत सुनकर उसे बहुत प्रसन्नता हुई । संतरी को बुलाकर उसने कहा - "वह जो साधु मेरी प्रशंसा कर रहा है, उसे अभी दरबार में बुला लाओ । संतरी आशादास को बुला लाया । वह मन ही मन खुश हो रहा था । सोच रहा था - आज तो राजा प्रसन्न होकर मुझे मालामाल कर देगा । राजा ने शीघ्र ही बाजार से एक तरबूज मंगाया और उसे कटवा कर उसमें ढूंस ढूंस कर अशर्फियां भर दी । और एक कपड़े में लपेटकर उसे रख दिया । आशादास तरबूज लेकर बाहर निकला | उसे गंगाराम राजा पर बड़ा क्रोध आ रहा था । और राजा के नाम की रट लगा रहा था। आज उसकी आशा पर पानी फिर गया, जब उसे तरबूज दिया गया । वह मनमें क्षुब्ध भी हुआ । तरबूज को फेंक देना चाहता था । पर फेंक न पाया । तभी एक कुंजडिन से उसकी भेंट हो गई । वह बोली - "बाबा !यदि आप तरबूज को देना चाहें तो मैं चार आने दे सकती हूं । मेरे पास इतने ही पैसे हैं ।" साधु ने सोचा फेंक देने से तो चार आने मिले वही अच्छे । उसने उस कुंजडिन को तरबूज देकर चार आने ले लिये । कुंजडिन तरबूज लेकर आगे चल पड़ी। रामशरण साधु दिन भर राम की रट लगता घूमता रहा पर मुश्किल से पेट भरने योग्य पैसे पा सका। पर वह उतने पैसो में खुश था । वह उसी तरह राम की रट लगाये घूमता रहा । घूमते-घूमते उसे भूख लग आई । उसने सोचा - जितने पैसे मिले हैं, उनसे कुछ खरीद कर पेट भर लेना चाहिये । यह सोच रहा था कि इतने में वहीं कुंजडिन मिल गई। बोली - "बाबा! तुम्हें तरबूज चाहिये तो ले लो । बहुत मीठा है ।" शाम हो आई थी । इसलिये कुंजडिन चाहती थी जो दाम मिले उतने में इस तरबूज को बेच दूं, नहीं तो कल तक यह सड़ जाएगा । साधु ने अपने झोले में हाथ डाला । कुल छ: आने निकले। उसे संकोच हो रहा था कि छ: आने में यह इतना बड़ा तरबूज कैसे दे देगी?" फिर भी साहस करके बोला – “माई! मेरे पास तो कुल छह आने हैं ।" कुंजडिन ने कहा - "ले जाओ बाबा !" कुंजडिन ने देखा कुछ तो लाभ हुआ । दो आने बचे वे भी ठीक है । रामशरण साधु ने तरबूज को खुशी से ले लिया । और चल पड़ा । उसे तो भर पेट खाना सस्ता पड़ा। उसने नगर के बाहर तरबूज काटने का विचार किया । अतः नगर के बाहर जाकर एक एक वृक्ष के नीचे अपना थैला उतारा और चाकू निकाल कर तरबूज काटने लगा । तरबूज के भीतर अशर्फियां भरी हुई थी । उसने तत्काल परमात्मा को स्मरण किया । उनकी अपार कृपा को याद किया । उसके मुंह से सहसा यह वाक्य निकल पड़ा जिसको देवे राम, उसे क्या देगा गंगाराम?" दूसरे दिन आशादास साधु नित्य की भांति राजमहल के आगे से होकर रट लगाये जा रहा था -"जिसको देवे गंगाराम उसको क्या देगा राम?" यह आवाज राजा गंगाराम के कानों में पड़ी । उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने आशादास साधु को बुलाकर पूछा - "क्यों महाराज! कल का तरबूज कैसा था?" आशादास को राजा का यह वाक्य तीर की तरह चुभ गया । उसे व्यंग्य समझ कर वह मन ही मन बड़ा रूष्ट हुआ अतः बोला - साधु से मजाक नहीं की जाती राजन् । मैंने उस तरबूज को चखा तक नहीं । एक कुंजडिन को चार आने में बेच दिया।" राजा अब क्या कहे । वह बड़ा आश्चर्य चकित था । उसने आशादास साधु को मालामाल करना चाहा था, लेकिन उसका भाग्य ही उल्टा था । उसे आश्चर्य हुआ । सोचा - वह तरबूज किसके हाथ लगा, पता लगाना चाहिये । अतः राजा ने उस साधु से पूछा - "क्या उस कुंजडिन को आप जानते हैं?" साधु ने कहा क्यों नहीं? वह प्रतिदिन चौराहे पर बैठा करती है । राजा ने उस कुंजडिन को बुलाने के लिये सिपाही भेजा । कुछ ही देर में वह डरती डरती राजा के सामने उपस्थित हुई । राजा ने पूछा- क्या इस साधु से तुमने तरबूज क्रय किया था? वह बोली - "हां महाराज!" राजा फिर उसका क्या हुआ? उसने कहा - "मैंने एक साधु को वह छ: आने में बेच दिया था।" राजा ने पूछा - क्या तुम उस साधु को पहचानती हो?" कुंजडिन ने कहा हाँ महाराज, पहचानती क्यों नहीं? अभी तो फाटक के बाहर वह आवाज लगा रहा था - जिसको दे राम उसे क्या देगा गंगाराम। यह सुनते ही राजा ने अपने घुड़सवार दौडाए और उनसे कहा कि - जो साधु जिसको दे राम उसे क्या देगा गंगाराम कहता हुआ जा रहा हो, उसे मेरे पास बुला लाओ । यह सुनते ही घुड़सवार दौड़ पड़े और खोजते-खोजते वहां पहुंच गए, जिस वृक्ष की छाया में साधु रामशरण विश्राम कर रहा था । उसे देखते ही एक सिपाही ने घुडक कर कहा- 'ऐ बाबाजी ! हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 46 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्य ज्योति Plain Educationational
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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