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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ वाद विवादे विषघना, बोले बहुत उपाध | मौन गहै सबकी सहै, सुमिरै नाम अगाध || इसका तात्पर्य यह है कि वाद-विवाद करने से मनुष्यों में परस्पर कलह उत्पन्न होता है, कटुता बढ़ती है तथा अनेक उपाधियां परेशान करती है । अगर सबकी बातों को सहन करता हुआ मनुष्य मौन रहे तो वह निश्चित प्रभु का नाम स्मरण कर सकता है । प्रकृति मौन रहती है । उसमें भांति भांति के चित्र उभरते रहते हैं । आप प्रकृति से प्रकृति की भाषा में बात कीजिये। आपको जितनी आनन्दानुभूति होगी, उसे आप शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पायेंगे । कारण कि प्रकृति की भाषा मौन है । मौन से मौन रहकर ही बात की जा सकती है और जब आप प्रकृति से मौन रहकर बात करेंगे तो उसमें स्वयं ही खो जायेंगे, डूब जायेंगे । प्रकृति मौन रहकर भी सत्य का दिग्दर्शन करा देती है । यहां एक बात और यह कहनी है कि मौन का अर्थ केवल होंठों को सी लेना नहीं है, जबान को बंद कर लेना नहीं है । केवल वचन से मौन रहना मौन नहीं है । मनुष्य बोले नहीं और मन ही मन दूसरों का अहित चिंतन करता रहे, क्रोधावेग में निर्दोष प्राणियों का वध करता रहे तो ऐसे मौन का कोई महत्व नहीं है । उस मौन को मौन नहीं कहा जा सकता। इसी बात को ध्यान में रख कर मौन के चार प्रकार बताये गये हैं । यथा 1. मन, 2. वचन, 3. काय और 4. आत्मा का मौन। __ अतः प्रत्येक मनुष्य को कम से कम बोलना चाहिये और अधिक से अधिक मौन रहना चाहिये । मौन रखने के लिये अभ्यास की आवश्यकता होती है । अभ्यास द्वारा सब कुछ सम्भव होता है । अपनी शक्ति बढ़ाना हो, ऊर्जावान रखना हो तो मौन धारण करें । 22. मृत्यु जब किसी का जन्म होता है तो अपार प्रसन्नता की अनूभूति होती है । धूमधाम से जन्मोत्सव मनाया जाता है किंतु जब किसी की मृत्यु होती है तो परिवार में शोक की लहर छा जाती है । परिवार का प्रत्येक सदस्य आंसू बहाता हुआ दिखाई देता है । उतना ही नहीं अन्य रिश्तेदार तथा आस पड़ोस के व्यक्ति भी शोकमग्न हो जाते हैं । विचार कीजिये, क्या यह शोक उचित है । मृत्यु किसकी हुई? मरा तो शरीर है, आत्मा तो अजर अमर है । इस बात को भी छोड़ दें । तो भी यह बात तो प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु एक न एक दिन निश्चित ही होगी । जब मृत्यु निश्चित है तो फिर शोक अथवा दुःख क्यों? जितने दिन का साथ रहा, आनन्द रहा और जब विदाई का अवसर आया तो दुःख नहीं होना चाहिये । जाने वाले को उत्सव के साथ बिदा करना चाहिये । जिस प्रकार जन्मोत्सव मनाया उसी प्रकार मृत्यु-महोत्सव भी मनाना चाहिये । मृत्यु तो एक स्वाभाविक और साधारण क्रिया है । मृत्यु क्या है? उस प्रश्न का उत्तर गीता में इस प्रकार दिया गया है : वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गहणाति नरोऽपराणि | तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। 2-221 इसका तात्पर्य यह है कि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त करते हैं । जब ऐसे विचार ज्ञानी पुरुषों के मानस पटल पर तैरते हैं तो वे मृत्यु की भयानकता पर विजय प्राप्त कर लेते हैं और मृत्यु का अवसर आने पर अविचलित रहते हैं । उन्हें किसी भी प्रकार का भय अथवा दुःख नहीं होता है। वे ज्ञानी पुरुष ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप से सुसज्जित होकर मृत्यु का स्वागत-सामना करते हैं जो व्यक्ति इस प्रकार शांत रहकर स्थिर भाव से मृत्यु का आलिंगन करता है उसे पंडित मरण की संज्ञा दी गई है । पंडितमरण के विपरीत जो विवेकहीन होकर हाय हाय करते हुए, खेद, पश्चाताप, दुःख, शोक और विकलता से आर्त्तध्यान करते हुए मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उसे बाल मरण कहते हैं जो अज्ञानी जीव होते हैं, वे बालमरण को प्राप्त होते हैं । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 8 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति CIDEducatantnternama
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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