SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 19. ईश्वर को दोष मत दो ईश्वर, परमात्मा, भगवान तो वीतराग हैं । वे किसी को भी सुख अथवा दुःख नहीं देते हैं । फिर भी कुछ लोग अज्ञानतावश दुःख के लिये ईश्वर को दोष देते हैं, जो गलत है । लोग यह भी कहते हैं कि जैन मतावलम्बी ईश्वर को नहीं मानते हैं । जैन धर्म में ईश्वर के सम्बन्ध में अलग और स्पष्ट धारणा है । जैनधर्म ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता नहीं मानता। बस उसी बात को लेकर कुछ लोग यह कहने लगे कि जैन धर्म में ईश्वर को नहीं माना जाता । प्रत्येक सम्प्रदाय या धर्म में ईश्वर के विषय में अलग अलग मान्यता है । अपनी अपनी मान्यता के अनुसार वे ईश्वर का अस्तित्व मानते हैं । मान्यता में भेद हो सकता है किंतु मूल सिद्धांतों में कोई अन्तर नहीं है । पानी शीतल होता है । अग्नि का गुण ऊष्णत्व है । इससे कोई इंकार नहीं कर सकता । इसी प्रकार ईश्वर को जो जिस रूप में देखें, उसे उसी रूप में दिखाई देता है । किंतु इतना निश्चित है कि आदमी को जो सुख और दुःख मिलते हैं, वे उसके अपने कर्मों के अनुसार ही मिलते हैं । जैसा कि गीता में भी कहा गया है कि जो जैसा कर्म करेंगा वैसा उसे फल मिलेगा । आप कर्म तो बुरे करो और अच्छे फल की आकांक्षा करो, यह कैसे सम्भव है । बबूल का पेड़ लगाने से आम खाने को नहीं मिल सकते । आम खाना हो तो आम का पेड़ ही लगाना होगा । अतः यह निश्चित है कि ईश्वर कभी किसी को सुख अथवा दुःख नहीं देता है । 20. सामर्थ्यानुसार तप करो तपश्चर्या से निर्जरा होती है, कर्मों का क्षय होता है । तप के अंतरंग और बहिरंग भेद हैं और इनके भी छ: छ: भेद हैं जो कुल बारह भेद हैं । स्वरूपाचरण चरित्र भी शास्त्रों में तभी माना है जब बारह तप और रत्नत्रय आदि के साथ चलेंगे। साथ ही तीन गुप्ति को जिन्होंने प्राप्त कर लिया है उससे ही कर्म क्षय होंगे । कर्मों का आश्रव जहाँ रूक जाए वहीं से स्वरूपाचरण का प्रारम्भ होगा । हमारे ऋषि मुनियों ने संयम के साथ चिंतन किया है । इसलिये उन्होंने प्रामाणिक ज्ञान दिया है । मनःपर्यय के साथ जानना ही श्रेष्ठ है । मन, वचन, काय से छानो, फिर जानो वही आपके काम आयेगा । विवेक के बिना तत्वज्ञान में प्रवेश नहीं कर सकते । जब बाजार में मिट्टी का एक घड़ा खरीदने जाते है तो उसे अच्छी प्रकार ठोक बजाकर लेते हैं । तब फिर ज्ञान लेते समय ठोक बजाकर क्यों नहीं लेते? तप-त्याग आदि शास्त्रों में अपनी अपनी शक्ति / सामर्थ्यानुसार बताये गये हैं । सभी व्यक्तियों की शक्ति समान नहीं है, सबकी शक्ति या सामर्थ्य में अंतर हैं । सभी उपवास नहीं कर सकते । इसलिये तप-उपवास आदि जो भी करना है आप अपनी सामर्थ्य के अनुसार करें । किसी से उस सम्बन्ध में प्रतियोगिता नहीं करें । किंतु स्मरण रहे तप अवश्य करें । जितना कर सकते हैं करे । उपवास नहीं कर सकते तो एकासना करें । उसी प्रकार मन्दिर अवश्य जावे | जितना समय आप मन्दिर में रहें उतने समय के लिये घर परिवार के मोह को नहीं रखें । अपने ध्यान में केवल प्रभु और मन्दिर ही रखना चाहिये । 21. मौन अधिक बोलने से शक्ति का हास होता है और मौन रहने से शक्ति का संग्रह होता है । मौन से समस्त अर्थों की सिद्धि भी हो जाती है । मौन उस अवस्था को कहते हैं जो वाक्य और विचार से परे शून्य ध्यानावस्था हो । मनुष्य मौन का महत्व नहीं समझता जबकि मानव जीवन में मौन का बहुत बड़ा महत्व है । मौन धारण करने से मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है और उस शक्ति को बल मिलता है । यही कारण है कि मौन के विषय में यह कहा जाता है कि मौन अनंत शक्तिधारक है । एक विचारक ने कहा है -“बोलना सोना है किन्तु मौन सुवर्णनिर्मित सुन्दर आभूषण है ।" ज्यादा बोलने से स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, स्वास्थ्य को हानि होती है, साथ ही जितने समय तक बोला जाता है, वह समय व्यर्थ चला जाता है । यदि कम बोलते हुए अधिक से अधिक मौन रहा जाय तो उससे मनुष्य की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है । व्यक्ति अपने समय का अधिक से अधिक सदुपयोग कर सकता है । महात्मा कबीरदासजी ने कहा है : हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 7 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति Educational
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy