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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
16. जीवन की क्षणभंगुरता
मानव भव मिलना दुर्लभ है । मानव भव में जन्म लेने के लिये देवता भी तरसते रहते हैं । इसका कारण यह है कि यही वह भव है जिसमें साधना करके आत्मा को परमात्मा बनाकर मुक्ति रमणी का वरण किया जा सकता है किंतु दुःख है कि आज मानव अपने इस जीवन का महत्व नहीं समझ रहा है और अपने इस जीवन को भौतिकता की चकाचौंध में विनाश की ओर ले जा रहा है । वह यह नहीं समझ रहा है कि उसके हाथ मानवजीवन रूपी चिंतामणि रत्न प्राप्त हुआ है । इस चिंतामणि रत्न का समय रहते सदुपयोग कर लेना चाहिये । क्षण क्षण को वह कोढ़ियों के मोल नष्ट कर रहा है जो अनमोल है । समय अनमोल है । क्षण भर के लिये भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । धर्म आराधना करके उसका उपयोग करना चाहिये। कोई नहीं जानता है कि कब काल का पंजा उसे जकड़कर समाप्त कर देगा । यह जीवन क्षणभंगुर है | किसी भी क्षण यह समाप्त हो सकता है । इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि जो समय मिला है उसका उपयोग सद्कार्यो में किया जाय । स्मरण रहे जो समय व्यतीत हो गया है, वह फिर लौटकर वापस आने वाला नहीं है । इसलिये सावधान हो जाओ, चेत जाओ और जो अमूल्य जीवन मिला है उसका सदुपयोग करो । धर्माराधना के द्वारा, तपश्चर्या के द्वारा, सेवा और त्याग के द्वारा कर्म निर्जरा करने की ओर अग्रसर हो जाओ । जीवन की क्षणभंगुरता को जानो / पहचानो और उसके अनुरूप अपने आपको ढालो । इसी में आपका हित है, कल्याण है । 17. मन को पवित्र रखें
धर्म और तत्वज्ञान तथा उसका चिंतन और प्रतिपादन उत्तरोत्तर कठिन है । धर्म के दस अंगों में से शौच अभंग, अखण्ड है । सत्य को प्रकट करने के लिये अंतरंग की मलिनता को निकालना आवश्यक है । कायिक शौच मात्र नहीं है । चर्म धुलने से कर्म नहीं धुलते हैं । बहिरंग से तो सारी दुनिया साफ सुथरी बन सकती है किंतु अंतरंग का स्वच्छ निर्मल होना जरूरी है । पानी से अंतरंग की शुद्धि नहीं हो सकती है । जो भव्यात्मा के जन्म-जरा रहित होने के लिये वीतराग परमात्मा द्वारा बताये गये मार्ग से शुद्धि करता है, वह श्रेष्ठ है । यदि परमाणु प्रमाण कषाय भी मन में हो तो वह जीव को सम्यग दृष्टि नहीं होने देता । अतः उत्तम शौचधर्म के पालन में थोड़ी सी भी कमी नहीं होनी चाहिये । ज्ञान को विनयपूर्वक जानना, उसको आत्मसात करना पड़ेगा, वही उपयोगी है । तभी मन की शुद्धि होगी । जब मन ऊंचा होगा । मन पवित्र होगा । जिसका मन अपवित्र होगा, उसका जीवन नीचे की ओर उतरता जायेगा । समस्त दोषों का, बुराइयों का भण्डार मन ही है । अंतरंग बहिरंग से, सबसे जो उत्तम है, वही साधु उत्तम है । कोल्हू के बैल के समान जो एक स्थान पर बंधे हुए हैं, उन्हें महान नहीं कहा जा सकता । अस्तु ऊंचा उठना चाहते हैं तो मन को पवित्र रखें । 18. वैभव से आत्म कल्याण नहीं
मनुष्य को चाहिये कि वह अपनी सामर्थ्यानुसार त्याग करें । त्याग से अवगुण समूह परास्त होता है और निर्मल कीर्ति की प्राप्ति होती है | त्याग-धर्म सर्वश्रेष्ठ है । मनुष्य को वैभव के प्रति आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। वैभव आत्म कल्याण का कारण नहीं है । वैभव से आत्म कल्याण सम्भव भी नहीं है । वैभव से तो आत्मा और मलिन होता है ।
दान धर्म का परामर्शदाता है । दान चार प्रकार का बताया गया है । अभयदान, ज्ञानदान, औषधदान और आहारदान। उनमें ज्ञान दान श्रेष्ठ है जिसका प्रभाव इस भव से उस भव तक चलता है । ज्ञान को दान का मार्ग बतलाया है । त्याग का अत्यधिक महत्व है । ऐसा कहा गया कि जो जोड़ते गये वे डूबते गये और जो छोडते गये वे तिरते गये | त्याग धर्म से ही हमारी संस्कृति की रक्षा हो सकती है । इसलिये वैभव के बीच रहते हुए त्याग करना सीखो । वैभव में लिप्त मत रहो ।
हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति
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हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति
Sunil