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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 13. क्रोध का त्याग करें क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं । कषाय आत्मा के गुणों का घात करते हैं । क्रोध की स्थिति में बुद्धिमान व्यक्ति भी अपना विवेक खोकर विवेक शून्य हो जाता है और उस स्थिति में कुछ ऐसे कार्य कर बैठता है जिसकी वह स्वयं भी कल्पना नहीं करता अथवा बाद में उसे उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है । क्रोध की समाप्ति के पश्चात् जब वह कृत कार्यों पर चिंतन करता है तो उसे पश्चाताप होता हैं, किंतु वह कर कुछ नहीं सकता । यही कारण है कि विद्वानों ने क्रोध को अर्ध पागलपन की संज्ञा दी है । क्रोध क्यों उत्पन्न होता है? उसका उत्तर यह है कि जब व्यक्ति की इच्छा के अनुकूल काम नहीं होता है, बात नहीं बनती है, आज्ञा का पालन नहीं होता है तब क्रोध उत्पन्न होता है । स्थानांग सूत्र के अनुसार क्रोध नरक गति की ओर ले जाने वाला है । क्रोधान्ध व्यक्ति सत्य, शील और विनय का विनाश कर डालता है । क्रोध मन के दीपक को बुझा देता है । क्रोध मनुष्य की आयु को कम करता है । मनुष्य को मानसिक पीड़ा पहुंचाता है । क्रोध मनुष्य के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालता है। क्रोध मनुष्य के सौन्दर्य को नष्ट करता है । सौम्यता को नष्ट करता है, मनुष्य के चेहरे को विकृत करता है । क्रोध से मन मलिन होता है और पाचन शक्ति मन्द पड़ जाती है । क्रोध से वैर का बंध होता है । उनके अतिरिक्त भी क्रोध के अनेक दुष्परिणाम है । क्रोध के दुष्परिणाम को देखते हुए मनुष्य को क्रोध से बचना चाहिये । क्रोध का सदा सदा के लिये त्याग कर देना चाहिये । क्रोध के त्याग से जीवन में सद्गुण आते हैं । 14. मायाचार पतन का मार्ग नारकीय जीवों में क्रोध अधिक होता है । तिर्यंचों में मायाचार होता है, मान मनुष्यों में अधिक होता है । आचार्यों के अनुसार क्रोध को जीतने के लिये क्षमा को उत्तम माना है । मान को जीतने के लिये मार्दव और मायाचार को जीतने के लिये उत्तम आर्जव धर्म पालन करने का मार्ग बताया है । क्रोध मान, माया और लोभ इन चारों कषायों का त्याग करने के लिये मनुष्य को किसी प्रकार के व्रत-उपवास की आवश्यकता नहीं होती है । इन चारों को श्री कृष्ण ने पर-धर्म बताया है और कहा है कि मनुष्य तू पर-धर्म को छोड़कर स्वधर्म पर मिट जा । जो व्यक्ति मन, वचन और कर्म से एक समान होगा वही श्रेष्ठ है । यदि साधु भी है और मन, वचन और क्रिया से अलग है तो वह मायाचारी है । पापात्मा है । मायाचारी जीव तिर्यच होता है । यदि तिर्यंच बनने से बचना है तो उत्तम आर्जव धर्म का पालन करो । मायाचार मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है । व्यसन मायाचार के लक्षण है । एक ओर मायाचारी करें और दूसरी ओर मंदिर में जाकर उत्तम आर्जव धर्म का पालन करें,यह नहीं चल सकता । मायाचार तो पतन का मार्ग है । उसका त्याग करना ही उत्तम है । 15. माता-पिता की सेवा आचार्य हेमचन्द्र ने सद् गृहस्थ के पालनीय धर्मों का विवेचन करते हुए लिखा है- माता-पितोश्चपूजक । इसके स्पष्टीकरण में कहा जा सकता है कि सद्गृहस्थ अपने माता-पिता की भक्ति और सेवा करता है । उनका आदर-सत्कार करता है । माता-पिता की इच्छाओं का ध्यान रखकर उनकी आज्ञा का पालन करने वाला होता है । मनुष्य के जीवन में आज जो संस्कार, जो शिक्षा और बौद्धिक विकास के पुष्प खिले हुए हैं । उनको विकसित करने वाली माता है । इस कारण माता को सबसे बड़ा शिक्षक माना गया है । माता-पिता की सेवा भक्ति के अनेक उदाहरण हमारे धर्म ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं । माता-पिता को तीर्थ रूप बताया गया है । जो अपने माता-पिता की सेवा पूर्ण श्रद्धा भक्ति के साथ करता है, उसे तीर्थ यात्रा का लाभ/पुण्य मिलता है । सद्गृहस्थ चाहे सामान्य हो, विशिष्ट महापुरुष हो अथवा तीर्थकर हो, माता-पिता की भक्ति उसकी नसनस में, रोम-रोम में बसी रही है । माता-पिता का आदर, सेवा और उनके प्रति सदा कृतज्ञ रहना – यह उनके जीवन आदर्शों का मुख्य स्रोत रहा है । अस्तु माता-पिता की सेवा–आदर सत्कार को अपने जीवन का लक्ष्य रखना चाहिये । वर्तमान काल में यह देखने में आ रहा है कि आज का युवक पुत्र अपने माता-पिता की सेवा करने में हिचकिचाता है, यह उचित नहीं है । अपनी इस प्रवृत्ति को त्यागना होगा । जिन्होंने आपके जीवन को संवारा आपको जीवन जीने की कला सिखाई उनके प्रति सेवा व्यवहार कृतज्ञता है । उनके उपकार को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 5 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ind a n international
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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