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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
साधु ऐसा चाहिये, जैसे सूप सुभाय । सार सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय ||
स्व-धर्म के प्रति सचेत रहते हुए आप सदैव उसके प्रचार प्रसार की बात तो करते हैं किंतु ऐसे समय आचरण मर्यादित होना आप अवश्य मानते हैं ।
श्रद्धेय आचार्य भगवंत का यह भी कथन है कि विकास इसलिये नहीं हो पाता है कि मनुष्य प्रायः आज का कार्य कल पर छोड़ देता है । उसके मूल में आलस्य प्रमाद ही प्रधान है। जबकि मनुष्य यह नहीं जानता है कि जो सांस उसने छोड़ी है, वह वापस आयेगी भी या नहीं । मृत्यु का कोई भरोसा नहीं है । वह कभी भी कहीं भी आ सकती है । इसलिये प्रमाद कभी नहीं करना चाहिये और जो भी कार्य करना है, उसे तत्काल कर लेना चाहिये। कहा भी है :
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब । पल में परलय होत है, बहुरि करेगो कब ॥
सूत्र कृतांग सूत्र में प्रमाद को कर्मबन्ध करने वाला बताया गया है । यथा :
पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरम | 8/3
श्रद्धेय आचार्य भगवन, आलस्य न करने का निर्देश देकर समझाते हुए कहते रहते हैं कि आलस्य या प्रमाद मनुष्य के शरीर के अन्दर रहने वाला शत्रु है । उद्यम मनुष्य का बन्धु है । उद्यम या परिश्रम या प्रयास करनेवाला कभी भी दुःखी नहीं होता है। उद्यम के माध्यम से आलस्य को दूर किया जा सकता है। अतः कभी भी आलस्य नहीं करना चाहिये और अपना समस्त कार्य यथासमय करने की आदल डालनी चाहिये । यदि समय पर कार्य नहीं किया तो बाद में पछताने / पश्चाताप करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय शेष नहीं रहता है। कहा गया है कि जो उद्यमी होता है वह सदैव जागृत रहता है और जो जागृत होता है, उसे ही कुछ मिलता है । जो आलसी है वह कुछ भी नहीं पाता :
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जो सोवत है सो खोवत है, जो जागत है सो पावत है । अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत ।
और भी
श्रद्धेय आचार्य भगवंत हमें सदैव व्यावहारिक बातों का ज्ञान भी प्रदान करते रहते हैं। जैसे साधु को कैसे उठना चाहिये, बैठना चाहिये । श्रावकों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिये । किस प्रकार बोलना चाहिये। बोली से वाणी से व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान होती है । कोयल अपने मीठे वचन के लिये सर्वत्र आदर पाती है और इससे विपरीत कौआ दुत्कारा जाता है । इसलिये सदैव ऐसी वाणी बोलनी चाहिये जैसा कि महात्मा कबीरदास जी ने कहा है -
वाणी ऐसी बोलिये, मनका आपा खोय | औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ||
इसके विपरीत यदि कटुक वचनों का प्रयोग किया तो उसका परिणाम सिर को भुगतना पड़ता है। जैसा कि रहीम ने कहा है :
रहिमन जिव्हा बावरी कहि गई सरग पाताल । आपुतो कहि भीतर गई, जूती खात कपाल ||
श्रद्धेय आचार्य भगवंत यह समझाते रहते हैं कि कम से कम बोलना चाहिये। साथ ही यदि दो बड़े बात कर
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