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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ।
नदान : रूप और स्वरूप
-विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गोदानम् अर्थात् उपकार के हेतु से धन आदि अपना पदार्थ जब किसी को दिया जाता है तो उसे दान कहा जाता है । दर असल दान में परोपकार का भाव मुख्य रहता है और अपने उपकार का भाव गौण ।
इन्दौर के सर सेठ हुकमचन्दजी अपने समय के पहले और अकेले श्रेष्ठि शिरोमणि थे । एक बार उनसे किसी ने पूछा, "आपके पास कुल सम्पत्ति कितनी है? लोगों को आप की सम्पत्ति की थाह नहीं मिल रही है । आप लक्ष्मी पुत्र हैं । जन कुल अनुमान ही अनुमान में भटक रहा है । कोई दश करोड़ का अनुमान लगाते हैं, कोई बीस करोड़ का । वास्तविक स्थिति क्या है? कोई नहीं जानता ।"यह सुनकर सेठ सा. मुसकराये और बोले - "मेरी सम्पत्ति थोड़ी है । आपको सुनकर आश्चर्य होगा - सत्ताइस लाख पचास हजार ।" प्रश्नकर्ता ने अविश्वास की मुद्रा में कहा, "क्यों फुसलाते हैं, आप? करीब पचीस लाख रूपये का तो शीश महल ही होगा । कितनी मिलें हैं, कितनी अधिक अन्य अनन्य मूल्यवान सामग्री? सेठ साहब तब बोले," आप मेरे कहने का आशय नहीं समझे । अभी तक इन हाथों से केवल सत्ताइस लाख पचास हजार ही दान में दिये जा सके हैं । जो इन हाथों से दिये गये हैं और जनता के हित में जिनका उपयोग हुआ है, दर असल वे ही मेरे हैं । कितनी थोड़ी सी पूंजी है मेरी । हाथों से दिया गया दान ही अपना धन होता है ।"
दान की चर्चा में ही त्याग का प्रसंग स्वयमेव उद्भूत हो जाता है । मेरी दृष्टि में त्याग स्वयं एक स्वतंत्र आर्थिक सत्ता है । इसका दान से कोई सम्बन्ध नहीं । दान और त्याग दोनों स्वतंत्र शब्द हैं और दोनों की आर्थिक सत्ता भी स्वतंत्र ही है | त्याग वस्तुतः धार्मिक लक्षण है । वह आत्मिक स्वभाव है । जबकि दान है पुण्य कर्म । धार्मिकों अथवा त्यागियों के पास किंचित परिग्रह अथवा संग्रह नहीं होता जबकि दानियों के पास पदार्थों का पूर्ण परिग्रह पाया जाता है ।
त्याग वस्तुतः पर को पर जानकर किया जाता है । दान में यह बात नहीं होती । दान सदा उसी वस्तु का दिया जाता है जो वह स्वयं अपनी हो । पर-वस्तु का त्याग तो हो सकता है, पर दान नहीं । दूसरे की वस्तु को उठाकर यदि किसी को दे दिया जाय तो दान नहीं कहा जा सकता, अपितु वह एक प्रकार से चोरी की श्रेणी में आता है ।
जो वस्तु अनुपयोगी, अहितकारी और निरर्थक होती है वस्तुतः ऐसी किसी वस्तु का त्याग किया जाता है, जबकि दान में वही वस्तु दी जाती है जिसकी उपयोगिता और हितवादिता सर्वथा चिरंजीवी रहती है । इस प्रकार उपकार की भावना से अनुप्राणित अपनी उपयोगी वस्तु का सुपात्र को दे देना वस्तुतः कहलाता है - दान । दान
और त्याग में पदार्थ की उत्कृष्टता और निकृष्टता का प्रायः मूल्य और मूल्यांकन किया जाता है । दान में वही पदार्थ दिया जाता है जिसका सामाजिक और धार्मिक स्तर पर मूल्य होता है । त्याग में इस प्रकार का विचार प्रायः नहीं किया जाता है । सामान्यतः निकृष्ट पदार्थ अथवा प्रवृत्ति का त्याग किया जाता है । उदाहरण के लिए क्रोध का प्रायः त्याग किया जाता है । इसी श्रृंखला में मान, माया और लोभ का भी त्याग करना श्रेयस्कर होता है किन्तु ज्ञान का कभी कोई त्याग नहीं करता, क्योंकि ज्ञान आत्मा का स्वभाव है । आत्मा के लिये जो दुःखद और अप्रिय अनृतमयी वृत्तियां हैं जिनका उदय अथवा जन्म मोह जन्म राग और द्वेष से अनुप्राणित होता है, ऐसी बातों का सदा त्याग तो किया जाता है, दान कभी नहीं ।
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