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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
इसके विपरीत मनुष्य अपने आपको और परिवार के किसी भी सदस्य को दुःखद स्थिति में देखना नहीं चाहता । मनुष्य कितना भी बड़ा क्यों न हों, कितना भी धनाढ्य क्यों न हो । उस पर दुःख के बादल मंडराते अवश्य है । यह बात अलग है कि उन पर आये दुःख का प्रकार क्या है? कैसा है? प्रायः ऐसा होता है कि मनुष्य दुःख की घड़ी आने पर घबरा जाता है । दुःख अथवा संकट आने पर धर्म के प्रति उसकी श्रद्धा-भक्ति बढ़ जाती है । वह देव दर्शन के लिये प्रतिदिन मंदिर में जाने लगता है । अपने गुरु भगवंतों की सेवा में पहुंचकर दुःख निवारण के उपाय पूछता है । मनुष्य को दुःख की स्थिति में घबराना नहीं चाहिये । अपनी बुद्धि और विवेक का उपयोग करते हुए आए हुए संकट के निवारण का उपाय करते रहना चाहिये । धैर्य धारण कर समय के व्यतीत होने की प्रतीक्षा करना चाहिये । इस दुःखद स्थिति में धर्म के प्रति श्रद्धा - भक्ति जागृत हुई । इससे श्रेष्ठ यह है कि हर स्थिति में धर्माराधना करते रहना चाहिये । धर्माराधना करने से दुःख या संकट भले ही टले नहीं किंतु उनके प्रभाव में कमी अवश्य आ जाती है ।
अतः मनुष्य मात्र को यह मानकर चलना चाहिये कि जीवन में सुख-दुःख का आना एक स्वाभाविक क्रिया है । ऐसे समय धैर्य धारण करे घबराये नहीं और धर्माराधना, सतत् करते रहें । सुख की स्थिति में इठलायें नहीं, अभिमान न करे, सबके साथ समानता का व्यवहार रखें । विनम्र बने रहें और नियमित धर्माराधना करते रहे । 30. परिग्रह से बचो
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य ये पांच साधुओं के लिये महाव्रत है और गृहस्थों के लिये अणुव्रत । अपरिग्रह का मतलब है संग्रह मत करो । अर्थात किसी भी वस्तु को अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह मत करो | संग्रह करने से उन वस्तुओं का बाजार में अभाव उत्पन्न हो जाता है जिससे जिन व्यक्तियों को उन वस्तुओं की आवश्यकता होती है, उन वस्तुओं के अभाव में असुविधा का सामना करना पड़ता है । मनुष्य की अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह करने की प्रवृत्ति को किसी भी स्थिति में उचित नहीं कहा जाता है । आपने साल-दो साल के लिये सामग्री एकत्र कर रखी है, किंतु क्या आप जानते हैं कि आप कितने दिन जीवित रहेगे? इसी बात को ध्यान में रखकर किसी ने कहा है -
सामान सौ बरस का कल की खबर नहीं । यह बात तो सत्य है कि यमराज का दूत कब लेने आ जाएगा, कोई निश्चित नहीं है । जब जीवन ही निश्चित नहीं है तो फिर आवश्यकता से अधिक संग्रह करने से क्या लाभ | आप अपनी आवश्यकता के अनुसार सामग्री आदि रखिये। यदि आपने अपनी आवश्यकता से अधिक सामग्री का संग्रह कर रखा है और जितने भी सक्षम व्यक्ति हैं, उन्होंने भी संग्रह कर रखा है तो बाजार में सामग्री का अभाव हो जायेगा । ऐसी स्थिति में उन लोगों का क्या होगा जो प्रतिदिन कमाते हैं और प्रतिदिन अपनी आवश्यकता के अनुरूप सामान खरीदते हैं । उसके अतिरक्ति काला बाजार करने वालों का भी बोलबाला हो जायगा । वे लालच में आकर अपनी वस्तु दुगुने तिगुने दाम में बेचेंगे । स्मरण रहे लोभ पाप का बाप है । जो लोभ करेंगे उन्हें पाप में डूबना पड़ेगा । अस्तु पाप से बचने के लिये और पुण्य प्राप्त करने के लिये भी आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करना चाहिये । किसी ने कितना सुन्दर कहा है -
साई इतना दीजिये, जामे कुटुम्ब समाय |
मैं भी भूखा ना रहू, साधु न भूखा जाय || स्पष्ट है कि यहां याचक केवल यह इच्छा रखता हैं कि उसे केवल उतना मिलना चाहिये कि उसका और उसके परिवार का उदर पोषण हो जावे तथा उसके यहां आनेवाले साधु-महात्मा अथवा अतिथि भी भूखे नहीं रहे। उससे अधिक की उसे चाह नहीं है ।
इसके अतिरिक्त एक बात और यह कि आपके पास आवश्यकता से कई गुना धन है, सामग्री है तो उसे सुरक्षित रखने की चिंता भी आपको रहेगी । कहीं आपका धन या सामग्री चोरी न हो जावे, यह चिंता भी आपको सदैव बनी रहेगी । चिंता को चिता समान बताया गया है । अतः सबसे श्रेष्ठ उपाय तो यही है कि आवश्यकता से अधिक संग्रह न करें और परिग्रह से बचें एवं निश्चित रहें ।
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