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संयोजकीय...
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ दि.१२.१२.२००६
जिनशासन के सरोवर में हंस के समान दिव्यता और श्रेष्ठता प्रदान करता है। कुशल माली गुरुदेवश्री का जन्म भक्ति और शक्ति की वीर प्रसुता या काश्तकार जिस प्रकार प्लांटेशन करके एक वृक्ष धरा राजस्थान के बागारा नचार में पिताश्री ज्ञानचंदजी में तरह-तरह के फलों के स्वादों की कलमें लगाकर के यहाँ मातुश्री उज्जमदेवी की रत्नकुक्षी से हुआ। उसका बहुमुखी विकास करता है, उसी प्रकार गुरु कहते हैं कि - गुरु शिष्टा को कल्याण का
भी शिष्य को विविध प्रकार की साधनाएं, ज्ञान रास्ता बताते हैं, संसार में भटकते हुए प्राणी को गुरु ।
सम्पदाएं और संचित अनुभव देकर शिष्य के जीवन धर्म का, अध्यात्म का, आत्म शक्तियों को जगाने के
को ज्योर्तिमय बना देते है। का पथ प्रदर्शन करते है।
गुरु के अनंत उपकार शिष्ट पर होने पर भी गुरु शिष्य को ज्ञान देते हैं, वे शिक्षक हैं. गुरु अहंकारी नही होते वे हमेशा यथार्थवादी होते अनुशासक हैं, संसार में किस प्रकार जीना, कैसे है। ऐसे गुरु के उपकार को गुणमान कीर्तन शिष्य व्यवहार करना, जिसमें स्वयं को भी कष्ट न हो और
किस प्रकार करता है यह विशेष जानने योग्य तथ्य उसके कारण दूसरों को भी कष्ट नहीं पहुँचे । जीवन
होता है। परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणी नाच्छाधिपति की वह उदात्त शैली गुरु ही सिरवाते हैं।
वर्तमानाचार्य देवेश श्रीमद्विजटा हेमेन्द्रसूरीश्वरजी
म.सा. ने हमें नया जीवन दिया, ज्ञान दिया, जीवन वेसंसारका वह रहस्य जानते हैं जिसे जानकर
पर जीने की शैली दी, सत्यासत्य का बोध कराया, जीवन में जागृति और शक्ति का संचार किया जा
जिनेश्वर देव के विशुद्ध मार्ग का पथिक बनाया। सके। जो ज्ञान शास्त्रों से प्राप्त नहीं होता वह ज्ञान
हमारी अंधकारी आत्मा को प्रकाश का आस्वादन साधना के दिव्य अनुभव से गुरु ही दे सकते हैं। एक
कराया, गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के दिव्य ही अनुभव सूत्र से शिष्य के संपूर्ण जीवन को
तेजस्वी शासन से अनुबंधित कराया ऐसे अनगिनत ज्योर्तिमान बनाने की क्षमता रखता है - गुरु।
उपकारकर्ता गुरुदेव श्री का शिष्टयत्व प्राप्त कर ऐसा जीवन की उलझी समस्याओं को सुलझाना, लगता है कि प्रतिशत संसारसाचार को हम पार साधना के विघ्नों का निवारण करना गुरु ही जानते कर चुके हैं। हैं। शिष्य के मार्गदर्शक, सच्चे साथी और सहारा
महान तेजस्विता, असाधारण व्यक्तित्व, होते हैं - गुरु।
अद्वितीय संटाम साधना, वीतरानाश्रद्धा में अलौकिक गुरु की भूमिका दाता की है। गुरु शिष्य को दृढ़ता के धनी गुरुदेव श्री का जीवन दर्पण की भांती देता ही रहता है, इतना देते है कि फिर भी उनका स्वच्छ एवं निर्मल है। इस आयु (८८ वर्ष) चारित्र स्वजाना कभी रवाली नहीं होता है। जैसे एक दीया की सूक्ष्म रुप से प्रतिपालना स्वाधीन होकर करना अपनी ज्योती के स्पर्श से हजारो हजार दीयों को हम सभी के लिये आदर्श है। आपका संपूर्ण जीवन प्रकाशमान कर देता है, वैसे ही गुरु शिष्य के भीतर ही "प्रेरणा" का जीता जागता उदाहरण है। शासन अपनी संचित ज्ञान-संपदा, आध्यात्मिक सम्पदा, एवम् गुरुताच्छके प्रति भक्ति एवम् समर्पणता के भाव ओज-तेज संक्रमति कर शिष्य के व्यक्तित्व को अनुमोदनीय एवम् अनुकरणीय है।
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