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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
आवागमन के साधनों का अभाव था । चोर डाकुओं का आतंक बना रहता था । बेसाला पर भी डाकुओं के आक्रमण निरन्तर होते रहते थे । इन डाकुओं को मेमन डाकुओं के नाम से जाना जाता था। इन मेमन डाकुओं से अपनी रक्षा करने की दृष्टि से यहां की जनता अन्यत्र जाकर बस गई । डाकुओं ने आक्रमण करके जैन मंदिर को तोड़ डाला किंतु प्रतिमाजी सुरक्षित बचा ली गई । किवंदती है कि कोमता निवासी संघवी पालजी इस प्रतिमा को एक गाड़ी में रसकर कोमता ले जा रहे थे । गाड़ी जहां वर्तमान में मंदिर है, वहां आकर रूक गई। गाड़ी को आगे बढ़ाने के काफी प्रयास किय गये किंतु सफलता नहीं मिली । सूर्यास्त के पश्चात् रात्रि हो गई । रात्रि में उन्हें स्वप्न आया । स्वप्न में उन्हें निर्देश दिया गया कि प्रतिमा को यही मंदिर बनवाकर विराजमान कर दो । इस निर्देशानुसार पालजी ने मंदिर का निर्माण करवाकर वि. सं. 1233 माघ शुक्ला पंचमी गुरुवार को महोत्सव पूर्वक उक्त प्रतिमा को विराजित कर दिया । इसका प्रथम जीर्णोद्धार वि. सं. 1359 में और द्वितीय जीर्णोद्धार वि. सं. 1654 में दियावट पट्टी के श्री जैन श्वेताम्बर श्री संघ ने करवाया था ।
विश्व पूज्य प्रातः स्मरणीय गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. अपने विहारक्रम में धर्मोपदेश देते हुए वि. सं. 1955 में जब इस ओर पधारे तो आसपास के सभी ग्रामों के श्रीसंघ उनकी सेवा में उपस्थित हुए और इस प्रतिमा को लेजाकर अन्यत्र प्रतिष्ठित करने की विनती की । गुरुदेव ने फरमाया कि प्रतिमा को यहां से न हटाते हुए यहीं चैत्य का विधिपूर्वक जीर्णोद्धार करवाया जावे । परिणामस्वरूप गुरुदेव के उपदेशानुसार इसका तृतीयोद्धार वि. सं. 1988 में प्रारम्भ हुआ और वि. सं. 2007 में पूर्ण हुआ । प्रतिष्ठोत्सव वि. सं. 2010 ज्येष्ठ शुक्ला प्रतिपदा सोमवार को सम्पन्न हुआ।
वर्तमान में यह मंदिर पूर्वाभिमुख है जिसके प्रवेश द्वार पर विशाल हाथियों के अतिरिक्त दोनों ओर शेर की प्रतिमाएं विराजमान हैं। द्वार पर नगारे बजाने हेतु सुन्दर झरोखा भी बना हुआ है । मन्दिर के गर्भगृह में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा विराजमान है, जिसके आसपास श्री शांतिनाथ एवं श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमाएँ हैं । गूढ मण्डप में अधिष्ठायक देवी की प्रतिमा एवं देवताओं की चरण पादुकाएं विराजमान हैं। इसके अतिरिक्त भाग में दोनों ओर दो दरवाजे हैं, जिनके पास ही दीवारों पर समवसरण, शत्रुजय अष्टापद, राजगिरी, नेमीनाथ प्रभु की बरात, सम्मेदशिखर गिरनार, पावापुरी के सुन्दर कलात्मक पट्ट लगे हुए हैं । आगे चार चार स्तम्भों पर आधारित सभा मण्डप है । जिसकी गोलाकार गुमटी में नृत्य करती हुई एवं वाद्य यंत्र बजाती हुई नारियों की मूर्तियाँ हैं । आगे प्रवेश द्वार के समीप ऐसा ही छोटा शृंगार मण्डप है, जिसके नीचे वाले भाग में संगीत यंत्रों को बजाती नारियों की आकृतियाँ हैं ।
मंदिर के चारों ओर चार कुलिकाओं के शिखर दृष्टिगोचर होते हैं । प्रत्येक कुलिका में तीन तीन जैन तीर्थकरों की प्रतिमाओं को वि. सं. 2010 ज्येष्ठ शुक्ला दशमी सोमवार को आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य में प्रतिष्ठित किया गया । मूल मन्दिर के शिखर के पीछे लम्बी तीन घुमटियों वाली साल बनी हुई हैं । जिसमें पार्श्वनाथ भगवान की चार सुन्दर कलात्मक प्रतिमाओं के साथ एक प्रतिमा गौतम स्वामी की भी प्रतिष्ठित की गई है । इस साल में श्री पार्श्वनाथ स्वामी की तीन प्रतिमाएं श्यामवर्ण को है । मन्दिर के प्रवेशद्वार के आंतरिक भाग के दोनों किनारों पर बनी देव कुलिकाओं के आसपास दो छोटी डेरियाँ बनी हुई है । जिसमें आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. एवं आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की प्रतिमाएँ विराजमान हैं । प्रवेश द्वार के आंतरिक मंदिर भाग में बने छोटे आलों में श्रीमातंग यक्ष एवं श्री सिद्धायिका देवी की प्रतिमा भी है । चारों देव कुलिकाएं आमने सामने हैं जिसके बीच में ग्यारह ग्यारह स्तम्भ बने हुए हैं ।
यहां एक विशाल धर्मशाला भी है जिसमें 200 आवासीय कोठरियां है यात्रियों के ठहरने खाने-पीने बर्तन बिस्तर आदि की समुचित व्यवस्था है ।
भगवान महावीर स्वामी का तीर्थ स्थल होने के कारण यहां प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला 13 से 15 तक विशाल पैमाने पर मेला लगता है । इस मेले में देश के कोने कोने से हजारों की संख्या में धर्म प्रेमी श्रद्धालु आते हैं ।
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