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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
एकांत में होने के बावजूद इस तीर्थ स्थान पर सदैव श्रद्धालु भक्तों की भीड़ लगी रहती है। क्षेत्र के निवासी सभी जाति और धर्म के लोग मूलनायक भगवान् महावीर के प्रति आस्था रखते हैं । यहां के निवासियों ने मन्दिर के आसपास एक मील की परिधि में शिकार खेलना निषिद्ध कर रखा है । इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार के पेड़ पौधों को काटना भी निषिद्ध है । निर्जन एकांत में होते हुए भी इस तीर्थ पर दर्शनार्थियों का सतत आवागमन इसके महत्व की ओर इंगित करता है ।
3. श्री गोडी पार्श्वनाथ आहोर :
राजस्थान का जालोर जिला, उसमें बहनेवाली सूकड़ी नदी । सूकड़ी नदी के किनारे बसा है आहोर । जालोर से तखतगढ़ मार्ग पर जालोर से 19 कि.मी. की दूरी पर आहोर स्थित है । मुख्य मार्ग पर बसा होने के कारण चारों ओर से आनेवाली बसें यहां होकर जाती है। निकटतम रेलवे स्टेशन जालोर है ।
मारवाड़ के ठिकानों में आहोर का ठिकाना प्रतिष्ठित था । ऐसा कहा जाता है कि आहोर ठिकाना मारवाड राज्य के प्रथम कोटि के ताजिमी सरायतों में से एक था जिसे प्रथम श्रेणी का दीवानी फौजदारी अधिकार, डंका, निशान और सोना निवेश का सम्मान मिला हुआ था । ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि जब जालोर के सोनिगरा चौहान कान्हड़देव का अलाउद्दीन के साथ ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, तब उस युद्ध में यहां के क्षत्रिय वीरों ने अद्भुत वीरता का परिचय दिया था ।
इस तीर्थ की उत्पत्ति का विवरण रोचक है । प्राप्त जानकारी के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि विक्रम की तेरहवीं सदी में अणहिल पाटण नगर में एक धर्मनिष्ठ श्रावक के द्वारा कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र सूरि के सान्निध्य में अर्जनशलाका महोत्सव का आयोजन किया गया था। उस हेतु अनेक प्रतिमाएँ लाई गई थी । आचार्यश्री के शिष्य बालचन्द्र ने मुहूर्त चुका दिया । इसी अवसर पर एक श्रावक तीन प्रतिमाएं लाया था जिनकी अंजनशलाका शुभ मुहूर्त में हुई। वे प्रतिमाएँ महाप्रभाविक भी हुई। उस श्रावक ने इन तीनों प्रतिमाओं को एक भोयरे में स्थापित कर दिया । श्रावक के पड़ोस में एक मुसलमान रहता था। उस मुसलमान ने एक प्रतिमा भोयरे से निकाल कर अपने घर में गड्ढा खोद कर उसमें छिपा दी। वह मुसलमान प्रतिदिन उस पर सोया करता था कुछ दिन तो बीत गए। फिर एक दिन प्रतिमा के अधिष्ठायक देव यक्ष ने मुसलमान को स्वप्न में कहा कि सिंध देश से जब मेघाशाह नामक श्रावक इधर आए तो पांच सौ टके लेकर प्रतिमा उसे दे देना यदि तू ऐसा नहीं करेगा तो तुझे मार डालूंगा । इससे मुसलमान डर गया और प्रतिमा निकाल कर मेघाशाह के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा ।
अपने व्यापार के सिलसिले में मेघाशाह श्रावक का पाटन आगमन हुआ । पाटन में ही रात्रि विश्राम के समय उसे स्वप्न आया कि यहां का एक मुसलमान तुम्हें एक प्रतिमा देगा। तुम पांच सौ टका देकर वह प्रतिमा ले लेना। संयोग से दूसरे ही दिन उस मुसलमान से मेघाशाह की भेंट हो गई। मेघाशाह ने पांच सौ टका देकर प्रतिमा ले ली ।
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अपना व्यापार व्यवसाय करते करते मेघाशाह की इच्छा अपने गांव लौटने की हुई। उसने रूई की गांठें बीस ऊंटों पर लादी । पहले जिस ऊंट पर रूई लादी गई थी, उस पर रूई में प्रतिमा भी ठीक प्रकार से रख दी । राधनपुर में कर चुकाते समय कर वसूलकर्त्ता में ऊंटों की संख्या पूछी तो उसे बीस ऊंट होना बताया । जब वसूलकर्त्ता ने ऊंट गिने तो उन्नीस निकले । वास्तविकता यह भी कि गणना करते समय वसूलकर्त्ता प्रतिमा वाले ऊंट को गिनना भूल जाता था । मेघाशाह ने बताया कि एक ऊंट पर भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा है । सम्भव है तुम उसकी गिनती करना भूल जाते हो कर वसूलकर्त्ता ने प्रतिमा के दर्शन किये और बिना कर लिये मेघाशाह को जाने की अनुमति दे दी ।
अपने गांव भदेसर पहुंचने पर प्रतिमा को लेकर मेघाशाह और उसके साले काजलशाह में विवाद हो गया । प्रतिमा मेघाशाह ने अपने हिसाब में रख ली । मेघाशाह की पत्नी मृगादे या मोती बाई एक धर्मपरायणा नारी थी। उसके दो पुत्र महिया और मेहरा थे । मेघाशाह ने प्रतिमा अपने परिजन धनराज के सुपुर्द कर दी । सेवा-पूजा-भक्ति करते हुए बारह वर्ष बीत गए ।
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