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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
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न धर्म और जीवन-मूल्य
भगवन्तराव गाजरे, निम्बाहेड़ा आज मूल्यगत स्तर पर मानवता संकट-ग्रस्त है । हमारे धार्मिक विश्वास टूट रहे हैं । श्रद्धा तथा आस्था निष्ठा और भक्ति एवं साधना के स्रोत सूख रहे हैं । आत्म संयम और आत्म विश्वास डगमगा रहा है । मानव के ज्ञान और विवेक मृतप्रायः हो गए हैं । हमारा सम्पूर्ण जीवन अभावों और विषमताओं की मार से टूटता जा रहा है। हमारे चारित्रिक पतन, अनैतिक व्यवहार, अमानवीय आचरण, स्वार्थ प्रेरित धन लोलुपता परिग्रह की पागल अभिलाषा तथा सम्पूर्ण भौतिकवादी दृष्टि कोण ने मानव के मन-मस्तिष्क को विकृत कर, विश्व को विनाश के कगार पर ला खड़ा कर दिया है ।
इस सर्वनाश से बचने का, तथा सम्पूर्ण विश्व को पतन से बचाने का एक ही उपाय है, वह है धर्म तथा उसका कट्टरता से जीवन मूल्यों के साथ पूर्णतया पालन । “यः धारयते सः धर्मः" जिसे मानव जीवन में धारण किया जा सके वही धर्म है। धर्म के ज्ञान और आचरण से मनुष्य को सफल तथा सार्थक जीवन जीने के वे उदात्तगुण प्राप्त होते हैं जो हमें अन्तर्चेतना विवेक, दिव्यालोक, दिव्यसंदेश, दिव्यामृत प्रदान कर युगधर्म के साथ साथ सारे जीवन मूल्यों से परिचित कराकर आत्म-साक्षातकार हेतु प्रेरित करते हैं । वे मूल्य हैं सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया, त्याग, तपस्या, सहयोग, परोपकार सेवा, संयम, क्षमा, सहानुभूति, स्वावलम्बन, स्वअनुशासन, सर्वधर्म समभाव, सरलता, धैर्य, विनम्रता, श्रम-निष्ठा, व्रत उपवास, साधना आराधना, ईमानदारी, विश्व बन्धुत्व, गुरुभक्ति, साहस, आत्मविश्वास तथा आशावादी दृष्टिकोण में मूल्य ही धर्म के द्वारा प्राप्त किये जा सकते हैं ।
धर्म जीवन का मूल है | किन्तु दुर्भाग्य ही मानिए की, हम सब काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं मात्सर्य आदि षड्रिपुओं के अथवा कषायों के अधीन होकर मूल में भूल ही नहीं कर रहे बल्कि भूल को तूल देकर मात्र शूल प्राप्त कर रहे हैं और जीवन पथ के फूल दूर होते जा रहे हैं । यह धर्म हमें इस स्थिति से बचाकर हमारी तथा हमारे विवेक की रक्षा करता है। देव-तत्व ही धर्म का उद्गम है । धर्म आत्मा का निज स्वभाव है । किन्तु वह पृथ्वी में दबे हुए रत्न के समान है । जिनेश्वर भगवंत का मार्ग दर्शन ही 'धर्म' निर्ग्रन्थ प्रवचन एवं मोक्षमार्ग है । कहा भी है कि -
"मोक्खमग्गगई तच्चं, सुणेह जिणभासियं |
चउकारणसंजुत्तं, णाणदंसण - लक्खणं ।' जिस महान आत्मा ने अपनी उत्तम साधना व निर्जरा से, अपने आत्मशत्रु घातिकर्मों को नष्ट कर दिया, जिन्होंने राग द्वेष का अन्त करके वीतराग दशा प्राप्त कर ली जो सर्वज्ञ बन गए, वे ही धर्म के उद्गम स्थान है। एतदर्थ हमें सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र का अनुकरण तथा मनसा वाचा कर्मणा अनुसरण कर धर्म के मर्म को समझना चाहिए। जैन धर्म की मान्यता है कि कोई महाशक्ति या सत्ता इस विश्व का नियन्त्रण नहीं कर रही है, बल्कि ईश्वर एक सर्वोच्च पद है जिसे आत्म विकास द्वारा कोई भी भव्यात्मा प्राप्त कर सकती हैं । अतः यह आत्म विकास धर्म के बिना संभव नहीं । धर्म ही हमें जीवन मूल्यों की शक्ति भक्ति आस्था-निष्ठा, त्याग तपस्या, साधना आराधना देकर उनमें गति-मति एवं प्रगति प्रदान करता हैं अतःमूल धर्म है और जीवन मूल्य उसके तने, पत्ते शाखाएं किंवा फल और फूल हैं ।
यही कारण है कि हमारे शास्त्रों में तीर्थकरत्व प्राप्ति के बीस कारणों में एक कारण प्रवचन की प्रभावना अथवा धर्म प्रचार करना भी माना है अतः धर्म तथा जीवन मूल्यों का अविच्छिन्न सम्बन्ध है । वैसा ही जैसा फूल और सुगन्ध का या दीपक और बाती का । दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती । बिना धर्म को जाने या पाले बिना जीवन मूल्यों का अस्तित्व नहीं और बिना जीवन - मूल्यों के धर्म का
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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