________________
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ।
4 मेरे अनंत अनंत श्रद्धा दीप
साध्वी कल्पदर्शिताश्री भारत भूमि रत्नगर्भा है । इस वसुन्धरा ने अनेक रत्न उगले हैं । ऐसे ही रत्नों में से एक दीप्तिमय रत्न अपनी पूर्ण आभा के साथ तेजस्वी छटा बिखेर रहा हे । यह रत्न सामान्य परम्परा में नहीं बल्कि ऋषि परम्परा में जाज्वल्यमान है । पू. गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की परम्परा में वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. के व्यक्तित्व को अंकित करना मुझ जैसे व्यक्ति के लिए सूर्य को दीपक दिखाने के समान है । जो स्वयं प्रकाशमान हैं उनके जीवन पर प्रकाश डालने की धृष्टता कैसे की जा
सकती हैं? उनके बहुमुखी, आयामी व्यक्तित्त्व के किस आयाम को मैं स्पर्श करूं? प्रत्येक आयाम परिपूर्णता लिए परिलक्षित होता है । गुरुदेव में गुणों का सागर लहरा रहा है, कौन भी तरंग मेरी पकड़ में आ सकती है? कहां से शुरू करूं? यही उलझन है । पूज्य गुरुदेव में मां के अनंत वात्सल्य को देखती हूं, उनकी करुणा असीम है । उनके हर कार्य को मैं करुणा प्रेरित ही पाती हूं । उनके नेत्रों में कभी शेष मिश्रित लालिमा नहीं देखी। 2 वर्ष से निरन्तर पू. गुरुदेव के श्री चरणों की निकटता का अवसर मिला मगर एकबार भी गुरुदेव के रूठने का अहसास होता तो मैं मान लेती कि गुरु भी रूठा करते हैं । गुरुदेव प्रशांत महासागर हैं, जो बाहर के तूफानों के बावजूद गहराई में सुस्थिर है | श्रद्धास्पद गुरुदेव में प्रबल आत्म विश्वास, धैर्य, साहस एवं अनेकान्त दृष्टि से अवलोकन करने की अपूर्व क्षमता है । आपने जिस कार्य के लिए कदम उठाए वह पूर्ण होकर ही रहा है -
"प्राण प्रतिष्ठा कार्य में, हाथ तुम्हारा हलका, जहां पदार्पण किया आपने, कि धन का घट छलका |
एक महोत्सव हुआ न पूरा, और निमंत्रण आए,
अल्पकाल में कई शिखर पर, तुमने ध्वज लहराएं ।" जहां जहां आप श्री पदार्पण करते हैं वहां वहां भव्य जीवों का अज्ञान तिमिर विलीन हो जाता है और वे विवेक के दिव्य प्रकाश में जगमगाने लगते हैं ।
तुम एक अलौकिक हो त्रिभुवन में सचमुच लाखों में । हे गुरुवर | मधुर शांत रस भरा हुआ,
भरपूर तुम्हारी वाणी में | बहुमुखी प्रतिभा के धनी पू. गुरुदेव के व्यक्तित्व को शब्दों में बांधना संभव नहीं है फिर भी मैंने यह प्रयास किया है कि गुरुदेव के प्रति श्रद्धा का जो उपवन अभिनंदन ग्रन्थ के माध्यम से संजोया संवारा जा रहा है और जिसकी विशालता आंकना मेरे लिए संभव नहीं है । उस उपवन में मैं भी अपनी श्रद्धा के दो सुमन किसी क्यारी के एक कोने में संजोकर अपने शिष्यत्व के दायित्व का निर्वाह करूं । इसी कामना के साथ मेरी परम आस्था के केन्द्र पू. श्रद्धेय गुरुदेवश्री के चरण कमलों में हार्दिक वन्दन ।
'गुलाब बनकर महक, तुझको जमाना जाने, तेरी भीनी-भीनी महक, अपना बेगाना जाने |
सैर की, फूल चुने, खूब फिरे, दिल शाद रहे, ए बागवां कविता चाहती है गुलशन सदा आबाद रहे ।।"
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 24
हेगेन्द ज्योति* हेमेन्य ज्योति
Edel