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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
इतिहासकार कल्हण ने महामेघवाहन भिक्षराज खारवेल द्वारा कश्मीर व गंधार देश विजयकर पशुबलि बंद करने एवं मन्दिर निर्माण का उल्लेख है ।
कल्हण ने एक उल्लेख में अशोक को श्रीनगर का निर्माता व जैन धर्म का परम श्रावक माना जाता है।
इसके बाद जैन धर्म को राजनीतिक आश्रय मिलना बंद हो गया । जैन धर्म का उतर भारत से पलायन होना मौर्य काल में शुरू हो गया था । गुप्त काल में जैन धर्म की अच्छी स्थिति का वर्णन हिन्दू पुराणों में उपलब्ध है। जैन धर्म को गुप्त काल के बाद नुक्सान पर नुक्सान उठाना पड़ा । वर्तमान पंजाब में जैन धर्म :
जैन धर्म हर युग में किसी न किसी रूप में विद्यमान रहा । 8वीं सदी तक तो यह धर्म अपने परमोत्कृष्ट पर था । पंजाब में जैन धर्म को दो जातियां प्रमुख रूप में मानती हैं । 1. ओसवाल 2. अग्रवाल। पहली जाति का संबंध ओसिया (राजस्थान) से है । यह लोग राजस्थान से सिन्ध, पंजाब, गंधार तक फैले । जिन्हें स्थानीय भाषा में भावड़ा भी कहा जाता है । यह जाति अधिकांश श्वेताम्बर सम्प्रदायः को मानती है ।
अग्रवाल जाति का जन्म स्थान हिसार जिले का अग्रोहा गांव है । जहां विक्रम 8वीं शताब्दी में लोहिताचार्य ने अग्रवालों को जैन धर्म में दीक्षित किया । अग्रवाल प्रमुखः दिगम्बर सम्प्रदाय है । दिगम्बर पट्टवलियों के अनुसार काष्ठ संघ की स्थापना भी अग्रोहा में हुई थी ।
जैनधर्म का प्रसार करने में खरतरगच्छ तथा तपागच्छ के आचार्य, यतियों के अतिरिक्त श्वेताम्बर स्थानकवासी व तेरहपंथ मुनियों का प्रमुख योगदान है । महाराजा कुमारपाल ने इस क्षेत्र पर विजय प्राप्त कर यहां जैन धर्म फैलाया था। राजा कुमारपाल के समय जैन धर्म काश्मीर और गंधार तक पनप चुका था।
कुवलयमाला ग्रंथ के रचयिता आचार्य उद्योतनसुरि ने पंजाब में जैन धर्म की छठी सदी की स्थिति का पता चलता है । खरतरगच्छ के दादा जिनचन्द्र सूरि और दादा जिनकुशल सूरि ने अनेक स्थलों पर जैन धर्म का प्रचार प्रसार किया। 2री सदी में कालकाचार्य कथा में पंजाब में जैन धर्म की स्थिति का अच्छा विवरण है । समस्त मुस्लिम शासकों के साथ जैनाचार्यों के अच्छे सम्बन्ध रहे हैं ।
इस संदर्भ में हम एक ग्रंथ विज्ञप्ति त्रिवेणी का उल्लेख करना जरुर चाहेंगे । प्रस्तुत ग्रंथ मुनि श्री जिनविजय जी ने ढूंढा था । इस ग्रंथ में विक्रम की 14-15 शताब्दी के जैन धर्म पर अच्छा प्रकाश पड़ता है ।
इसमें आचार्य श्री जिनभद्र जी, उनके शिष्यों श्री जयसागर, मेघराज गणि, सत्यरुचि, मतिशील व हेमकुंवरजी का कांगड़ा तीर्थ की यात्रा का वर्णन है । इस वर्णन के साथ-साथ तात्कालिक पंजाब की भौगोलिक स्थिति व पंजाब में जैन मन्दिरों की स्थिति का सुन्दर वर्णन है । वि. सं. 1484 में यह यात्रा सम्पन्न हुई थी । उस समय कांगडा का राजा कटोच वंशज नरेशचन्द, जैन धर्म का प्रमुख श्रावक था । आचार्यश्री सिन्ध, वर्तमान पाकिस्तान के क्षेत्रों में विचरण करते हुए कांगड़ा क्षेत्र में पहुंचे थे । रास्ते में उन्हें व्यास नदी के पास फरीदपुर (पाकपटन), तलपाटन (तलवाड़ा), देवालपुर (दीपालपुर) कंगनपुर (पाकिस्तान) हरियाणा (होशियारपुर जिला) नगर आऐ थे । वापसी में वह गोपाचलपुर (गुलेर हिमाचल), नन्दनपुर (नादौन) कोटिल ग्राम (कोटला) होते हुए लम्बा समय धर्म प्रचार करते रहे ।
वि. सं. 1345 में श्रावक हरीचंद ने दर्शन किये । इस के अतिरिक्त 1400, 1422, 1440, 1497, 1700 तक कांगड़ा तीर्थ पर किले में स्थित भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के दर्शन होते रहे ।
इन्हीं सन्दर्भो में हम प्राचीन पंजाब के पुरातत्व स्थलों का अध्ययन करेंगे । इन स्थलों में कुछ प्रमुख स्थलों का वर्णन इस प्रकार है :
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