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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 8 गहनों कर्मणों गति साध्वी तत्वलोचनाश्री भगवान् महावीर ने कर्म को आठ भागों में विभक्त किया है। 1. ज्ञानावरणीय कर्म, 2. दर्शानावरणीय कर्म, 3. वेदनीय कर्म, 4. मोहनीय कर्म, 5. आयुष्य कर्म, 6. गोत्र कर्म, 7. नाम कर्म, 8. अन्तराय कर्म 1-2 ज्ञानावरणीय कर्म और दर्शानावरणीय : कर्म का बन्ध लगभग एक जैसा ही है। ज्ञान शास्त्र या ज्ञानी के प्रति द्वेष करना, अखबार, पुस्तकादि पर बैठना, फाड़ना, उसमें खाना, ज्ञान की योग्यता होते हुए भी ईर्ष्या के कारण दूसरों को नहीं पढ़ाना, पढ़ने वालों की पुस्तकें छिपाना, पढ़ने नहीं देना, ज्ञान के प्रकाशन पर रोकना, अच्छी बात को बुरी बताना आदि ज्ञानावरणीय कर्म के हेतु यानि दर्शन की भाषा में आस्रव है और दर्शनावरणीय के भी यही हेतु है। इन दोनों का अशुभ बन्ध पड़ा हो तो क्रमशः ज्ञान का अभाव होता है, अर्थात ज्ञान की घोर आशातना की हो तो मनुष्य जड़, मूर्ख व कुरूप पैदा होता है या फिर पढ़-पढ़ कर भूल जाता है। पढ़ना चाहते हुए भी नहीं पढ़ पाता है। ज्ञानी गुरु का समागम नहीं मिलता। प्रभु दर्शन व धर्म दर्शन की प्राप्ति भी नहीं होती। इन दोनों के तीव्र बंध के विपाक से व्यक्ति, जंगली की तरह जीवन यापन करता है। -वेदनीय कर्म : कर्म का बंध जब मनुष्य को तीव्र हो तो उसके फलस्वरूप जीव (मनुष्य) दुख को पाता है, शोक उत्पन्न होता है, अपमानित होता है, आर्त्त पूर्वक रोता है, मारा जाता है, दुर्घटना आदि होना जिससे भयंकर पीड़ा होती है, दूसरे बिछड़े हुए या मृत व्यक्ति के गुणों को याद कर आंसू गिराना। यह सब वेदनीय कर्म के कारण जीवात्मा भोगती है। 4-मोहनीय कर्म : कर्म का बंध जीवात्मा का पड़ा हो तो उसके प्रभाव से मनुष्य केवली तीर्थकरादि पर झूठा आरोप लगाता है, असंगत बताता है, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, संघ आदि की निंदा करता है, अवर्णवाद, मिथ्यारोपण करता है, अपने स्वयं पर दूसरों पर क्रोधादि कषाय करता है । दूसरों का उपहास, ठगी, मजाक आदि करता है। खुद शोकातुर रहता है, दूसरों को भी शोक में डालने की कोशिश करता है, इत्यादि बातों में से किसी में भी लिप्त होने पर जीव मोहनीय कर्म बंध कर व सत्य धर्म की बात को समझने का प्रयास ही नहीं करता तथा अपने स्वयं के मित्र, पुत्र, पत्नी आदि के द्वारा ठगे जाने पर और उनके द्वारा प्रताड़ित होने पर भी वह उन्हीं लोगों पर पुनः विश्वास रखता है। 5-आयु कर्म : हमारा जीवात्मा जितना आयु कर्म का उपार्जन करके आया होगा उतने ही समय वह इस देह में जीवित रहता है और जैसी हमारी यहाँ प्रवृति होती है वैसा ही हमारा आयु कर्म का बंध पड़ता है और उसके प्रभाव से जिस जीवा योनी का बंध होता है उन्हीं जीव योनियों में जीव उत्पन्न होता है, जैसे मनुष्य योनि, देव योनि, तिर्यंच योनी, नर्क योनि। मनुष्य योनि :- स्वभाव से ही सरल, मृदुता, नम्रता, विनय, विवेक रखने वाला दीन दुखियों पर दया भाव रखने वाला दूसरों की सम्पत्ति देखकर ईर्ष्या, जलन न करने वाला तथा आवश्यकता से अधिक धन सम्पत्ति, वस्त्रादि का संग्रह न करने वाला अर्थात अपनी इच्छाओं को सीमित रखनेवाला जीव मनुष्य योनि का आयु कर्म बांधता है। हेगेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 65 हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति FPrivate&PANCE
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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