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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
इसके उत्तर में यही कहा गया है कि यह आपवादिक स्थिति है। किसी को बड़ी भारी दुर्घटना हो गई, तीव्र आघात लगा, हत्या कर दी गई या स्वयं ने आवेश में आकर आत्म हत्या कर ली। इन और ऐसी स्थितियों में यदि किसी की मृत्यु होती है, तो उसका आर्त्त-रौद्र ध्यान जन्य संस्कार इतना प्रगाढ़ होता है कि भयंकर कष्ट होने पर भी उसकी स्मृति नष्ट नहीं होती। उस निमित्त के मिलते ही वह सहसा उभर जाती है। अर्थात किसी व्यक्ति या परिस्थिति का निमित्त मिलते ही वह उबुद्ध हो जाती है।
अतः पूर्वजन्म को जानने-मानने का प्रबल साधन है - पूर्वजन्म स्मरण अर्थात जाति स्मृतिज्ञान जो यहां नया जन्म लेने वाले शिशु को प्रायः होता है। इससे सिद्ध हो जाता है कि इससे पूर्व भी वह कहीं था । इसलिए पूर्वजन्म की स्मृति न होने का आक्षेप निराधार है।
दूसरा आक्षेप :- आनुवांशिकता का विरोधी सिद्धान्त -
कई पुनर्जन्म - विरोधी कहते हैं कि "पुनर्जन्म का यह सिद्धान्त आनुवांशिक परम्परा का विरोधी है, क्योंकि वंश परम्परा के सिद्धान्तानुसार जीवों का शरीर और मन स्वभाव और गुण, आदतें और चेष्टाऐं, बुद्धि और प्रकृति आदि सभी अपने माता-पिता के अनुरूप होने चाहिए।" परन्तु ये सभी गुण सभी संतानों में माता-पिता के अनुरूप प्रायः नहीं पाये जाते ।
वंश परम्परागत गुण और स्वभाव मानने पर जो गुण पूर्वजों में नहीं थे, वे गुण अगर सन्तान में हैं तो भी उनका अभाव मानना पड़ेगा, जो प्रत्यक्ष विरूद्ध है । प्रायः यह देखा जाता है कि जो गुण पूर्वजों में नहीं थे, वे उनकी संतान में होते हैं। हेमचन्द्राचार्य में जो बौद्धिक प्रतिभा आदि गुण थे, वे उनके माता-पिता में नहीं थे। महाराणा प्रताप में जो शारीरिक शक्ति एवं स्वातन्त्र्य प्रेम था, वह उनके पिता एवं पितामाह में नहीं था। कई पिता बहुत ही उच्चकोटि के विद्वान होते हैं, परन्तु उनके लड़के अशिक्षित और बौद्धिक दृष्टि से पिछड़े होते हैं। अतः पुनर्जन्म में वंश परम्परा का सिद्धान्त न मानकर पूर्वजन्म के कर्मों के फल के अनुसार मनुष्य में गुण दोषों की व्याख्या करना उचित होगा। अतः पुनर्जन्म के संबंध में यह आक्षेप भी समीचीन नहीं है।
3. तीसरा आक्षेप :- इहलौकिक जगतहित के प्रति उदासीनता -
एक आक्षेप यह भी किया जाता है कि पुनर्जन्म की मान्यता से मनुष्य पारलौकिक जगत् की चिन्ता करने लगता है । इहलौकिक जगत् के प्रति उदासीनता और उपेक्षा धारण करने लगता है। किन्तु यह आक्षेप भी निराधार है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त आगमी लोक की चिन्ता या आसक्ति करना नहीं सिखाता अपितु यह इस जन्म को सफल और सुन्दर बनाने की प्रेरणा देता है ताकि आगामी जन्म अच्छा बन सके। पुनर्जन्म से परोक्ष प्रेरणा भी मिलती है, कि मनुष्य ऐसा अनासक्त और विवेक (यतना) युक्त जीवन बिताए, जिससे पापकर्मों का बन्ध न हो या शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का क्षय हो । पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्कर में फंसना अच्छी बात नहीं है। शंकराचार्य ने भी पुनः पुनः जन्म-मरण को मनुष्य के लिए अनुचित बताया है। अतः यह आक्षेप भी व्यर्थ ही किया गया है।
4. चौथा आक्षेप :- पुनर्जन्म का मानना अनावश्यक -
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कई नास्तिकता से प्रभावित लोग यह आक्षेप करते हैं लोगों की काल्पनिक उड़ान है। इन्हें मानने से क्या लाभ है
• जो लोग पुनर्जन्म का अस्तित्व नहीं मानते, मनुष्य को एक चलता-फिरता खिलौना मात्र समझते हैं, शरीर के साथ चेतना का उद्भव और मृत्यु के साथ ही उसका अन्त मानते हैं, ऐसे लोग, जो जीवन की इतिश्री भौतिक शरीर की मृत्यु के साथ ही समझकर अपनी मान्यता ऐसी बना लेते हैं कि जीवन वर्तमान तक ही सीमित है, तो उसका उपभोग जैसे भी बन पड़े करना चाहिए। नीति-अनीति, धर्म-अधर्म या कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार किये बिना ही
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"पूर्वजन्म और पुनर्जन्म, यह सब बकवास है, बौद्धिक और न माने तो कौन-सी हानि है ?"
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