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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
अतिजात पुत्र
डॉ. तेजसिंह गौड़, उज्जैन
स्थानांग सूत्र के चतुर्थ स्थान के प्रथम उद्देश्य के ऋतुसूत्र में पुत्रों का वर्गीकरण करते हुए कहा गया है। चत्तारि सुता पण्णत्ता, तं जहा - अतिजाते, अणुजाते, अवजाते, कुलिंगले । अर्थात् पुत्र चार प्रकार के होते हैं जैसे
पिता से भी अधिक समृद्ध और श्रेष्ठ होता है ।
पिता के समान समृद्धि वाला होता है ।
पिता से हीन समृद्धि वाला होता है ।
कुल में अंगार के समान कुल को दूषित करनेवाला होता है ।
1. कोई सुत अतिजात
2. कोई सुत अनुजात 3. कोई
सुत अपजात
4. कोई सुत कुलांगार
शास्त्र के कथन को कुछ और स्पष्ट इस प्रकार किया जा सकता है
1. अतिजात:- अतिजात पुत्र उसे कहा गया है जो अपने पिता की कीर्ति में यश में वृद्धि करता है। परिवार की समृद्धि में अपना योगदान देकर उसमें और वृद्धि करता है। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि विविध क्षेत्रों में अपने पिता द्वारा जो कार्य किये गये हैं, उनसे भी बढ़कर सेवाकार्य करता है । जिस I पुत्र के नाम से पिता के नाम की पहचान होती है । जो अपने पिता से हर क्षेत्र में सवाया, डेढ़ा हो, आगे निकल जाय । जो माता-पिता और अपने कुल का नाम उज्ज्वल करे उसे अतिजात पुत्र कहा गया है।
2. अनुजात :- अपने पिता से न कुछ आगे और न ही कुछ पीछे या कम । जितना और जैसा पिता ने किया, उतना ही उसने किया अर्थात् यथास्थिति बनाये रखी । ऐसा पुत्र जो पिता की समानता बनाये रखता है वह अनुजात पुत्र कहलाता है ।
3. अपजात :- अपजात पुत्र उसे कहा गया है जो कीर्ति को कम करता है । वह स्वयं तो कुछ नहीं करता वरन पिता के नाम को भुनाता है, उनके नाम और यशः कीर्ति का लाभ उठाता है । समाज में पिता ने जो अपना स्थान बनाया वह उससे भी नीचे चला जाता है । कहने का तात्पर्य यह कि पिता से नीचे की स्थिति पर चला जाने वाला पुत्र अपजात पुत्र कहलाता है ।
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4. कुलांगार - कुलांगार चौथे प्रकार का पुत्र बताया गया है जो अपने माता पिता की ख्याति को न केवल समाप्त करने वाला होता है । वरन् बदनाम भी कर देता है । इतना ही हीं वह अपने कुल का विनाश करने वाला भी होता है । ऐसे पुत्र अपने कार्यों से अपने पूरे कुल को कलंकित कर देता है । पिता द्वारा अर्जित प्रतिष्ठा को धूल में मिला देता है, समाप्त कर देता है । इस श्रेणी में अपराधी प्रवृति के व्यक्ति आते हैं ।
उपर्युक्त संदर्भ में यदि हम परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जीवन को देखे तो सहज ही हम अथवा कोई भी व्यक्ति कह देगा कि आप अतिजात पुत्र की श्रेणी में आते हैं। स्पष्टतः कहा जा सकता है कि आपने त्याग और वैराग्य का जो अनुपम आदर्श उपस्थित किया वह प्रत्येक मानव के सामर्थ्य की बात नहीं है। फिर आपने तप और सेवा का आदर्श उपस्थित किया। धर्माराधना में तो आप उसी दिन से संलग्न है जिस दिन आपने गृहत्याग कर जैन भागवती दीक्षा ग्रहण की। अपने संयम जीवन में भी आपने अनेक आदर्श स्थापित किये। इतना ही नहीं आपने बच्चों को सुसंस्कारवान बनाने के लिये उनमें संस्कार वपन किये और आज भी आप यह कार्य कर रहे हैं। आपने न केवल अपने माता-पिता, कुल और जाति
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