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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
जीवन मूल्य सुरक्षित रहने पर ही विश्व में सुख शांति हो सकती है :
आज अधिकांश कट्टर साप्रदायिक लोग धर्म के नाम पर परस्पर वादविवाद करते हैं, लड़ते झगड़ते हैं, एक दूसरे से घृणा, द्वेश, ईर्ष्या या विरोध करते हैं, दूसरे धर्म संप्रदायों का खंडन करके अपने संप्रदाय को पुराना और सच्चा सिद्ध करने की कोशिश करते हैं, परन्तु शुद्ध नीति, न्याय, धर्ममय जीवन जीना नहीं चाहते, अथवा चाहते हैं तो भी समय आने पर दसरे सांप्रदायिक लोगों की देखा देखी बहक जाते हैं, जीवन मूल्यों को छोड़ देते हैं, शुद्ध धर्म पर अटल नहीं रह पाते, ऐसी स्थिति में धर्मनिष्ठ जीवन मूल्य जीवन में कैसे सुरक्षित रह सकते हैं। परिवार समाज
और राष्ट्र में अशांति, अराजकता, व्यभिचार, अनाचार, भ्रष्टाचार और बेईमानी, हिंसा, हत्या, दंगा, आदि का मूल कारण भी यही है - जीवन मूल्यों का नष्ट भ्रष्ट होना। विश्व में शांति, अमन चैन और आनन्द तभी व्याप्त हो सकता है, जनता के जीवन में धर्म मूलक जीवन मूल्य सुरक्षित रहे। अन्याय, अनीति, प्रमाद, कषाय आदि के वशीभूत होकर जीवन मूल्यों को नष्ट न होने दें।
हिंसा-प्रवृत्त मनुश्य का तस्करवृत्ति में आसत्क रहने से और परस्त्रीरत-व्यक्ति का धर्म, धन, शरीर, इज्जत आदि समस्त गुण नाश हो जाता हैं। सर्व कलाओं में धर्मकला श्रेष्ठ है, सब बलों मे धर्मबल बड़ा है और समस्त सुखों में मोक्ष-सुख सर्वोत्तम है। प्रत्येक प्राणी को मोक्ष-सुख प्राप्त करने का सतत प्रयत्न करना चाहिये, तभी जन्म-मरण का दुःख मिट सकेगा। संसार में यही साधना सर्वश्रेष्ठ साधना है।
अभिमान, दुर्भावना, विशयाशा, ईर्ष्या, लोभादि दुर्गुणों को नाश करने के लिये ही शास्त्राभ्यास करके पाण्डित्य प्राप्त किया जाता है। यदि हृदय-भवन में पंडित होकर भी ये दुर्गुण निवास करते रहे तो पंडित
और मूर्ख दोनों में कुछ भेद नहीं है-दोनों को समान ही जानना चाहिये। पंडित, विद्वान् या जानकर बनना है तो हृदह से अभिमानादि दुर्गुणों को हटा देना ही सर्वश्रेष्ठ हैं।
सुख और दुःख इन दोनों साधनों का विधाता और भोक्ता केवल आत्मा है और वह मित्र भी है और दुश्मन भी। क्रोधादि वशवर्ती आत्म दुःखपरम्परा का और समतादि वशवर्ती आत्म सुखपरम्परा का अधिकारी बन जाता है। यथाकरणी आत्मा को फल अवश्य मिलता है। जो व्यक्ति अपनी आत्मा का वास्तविक दमन कर लेता है उसका दुनियां में कोई दुश्मन नहीं रहता। वह प्रतिदिन अपनी उत्तरोत्तर प्रगति करता हुआ अपने ध्येय पर जा बेठता है।
श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
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