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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
बालक जगन्नाथ को लेकर पू. गुरुदेव की सेवा में कुक्षी आए । पू. गुरुदेव का ज्ञानगर्भित एवं वैराग्यगर्भित प्रवचन चल रहा था । बालक, युवा एवं वृद्ध सभी तन्मय होकर गुरुदेव के वचनामृत का पान कर रहे थे । प्रवचन समाप्त हुआ और कई ने गुरुदेव से श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये तथा कुछ अन्य ने कुछ नियम भी ग्रहण किये । बालक जगन्नाथ गुरुदेव के प्रवचन को ध्यान से सुन रहा था । प्रवचनोपरांत जो हो रहा था, वह भी वह देख रहा था । वह खड़ा हुआ और उसने करबद्ध हो निवेदन किया – “पूज्य गुरुदेव ! मेरी भावना इस असार संसार का त्याग करने की है । क्या आप मुझे शिष्य रूप में स्वीकार करेंगे?"
"तेरा नाम क्या है ?" "मेरा नाम जगन्नाथ है ।"
"जगन्नाथ ! क्षणिक आवेश में आकर या वैराग्य की तरंगों में बहकर तुम यह कह रहे हो । तुम्हें पता नहीं है कि तुम आज जो कह रहे हो वह भावना कल समाप्त हो जायगी । आज वैराग्य की बात कर रहे हो और कल पुनः रागी नहीं बनोंगे, इसकी क्या खात्री ?"
तभी श्रेष्ठी केशरीमलजी उठे हाथ जोड़कर उन्होंने कहा - "गुरुदेव! इस बालक का वैराग्य श्मशान वैराग्य नहीं है, सच्चा वैराग्य है ।' इतना कहकर उन्होंने जगन्नाथ की धर्माराधना एवं चिंतन के विषय में सब कुछ बता दिया । यह भी बता दिया कि इस बालक के माता-पिता का स्वर्गवास हो चुका है । इस पर गुरुदेव ने पूछा “तब यह बालक कहां रहता है ?"
"गुरुदेव ! यह बालक मेरे पास रहता है । मैं अपना सौभाग्य मानता हूं कि यह पुण्यात्मा मेरे पास रहा ।" श्रेष्ठी केशरीमलजी ने बताया । इस प्रकार बालक जगन्नाथ गुरुदेव की सेवा में आगया । दीक्षा महोत्सव :
दीक्षा लेना तो सरल है किंतु दीक्षा मार्ग पर चलना, संयम का पालन करना अति कठिन है । कहा गया है कि असिधार पर चलना सरल है किंतु संयम मार्ग पर चलना कठिन है । जो भव्यात्मायें होती हैं वे इस मार्ग का अनुसरण कर स्व पर कल्याण करती है ।
पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. ने वैरागी जगन्नाथ का वैराग्य परिपक्व जानकर दीक्षा का मुहूर्त प्रदान कर दिया । इसके अनुसार माघ शुक्ला तृतीया को वैराग्यमूर्ति जगन्नाथ को दीक्षा प्रदान की जानी निश्चित हो गई और इसके साथ ही दीक्षोत्सव की तैयारियां भी शुरू हो गई । बालक जगन्नाथ की दीक्षा का समाचार अनेक नगरों एवं गांवों में प्रसारित हो गया । गांव-गांव, नगर-नगर से गुरुभक्तों का आगमन कुक्षी में होने लगा । जैसे जैसे दीक्षा का दिन निकट आता गया, वैसे वैसे गुरुभक्तों की भीड़ बढ़ने लगी । कुक्षी वासियों ने अपने नगर को बहुत ही सुन्दर रीत्यानुसार सजाया था ।
दीक्षा का निर्धारित दिन आया । माघ शुक्ला तृतीया का अभी सूर्य भी उदय नहीं हुआ था कि कुक्षी के गुरुभक्तों की चहल पहल शुरू हो गई । सूर्योदय होते होते सभी तैयारियों हो गई । एक सुन्दर सुसज्जित रथ में वैराग्य मूर्ति जगन्नाथ को बैठाया गया और चल समारोह शुरू हुआ । वाद्य यंत्रों की मधुर धुन के साथ गुरुभक्तों की जय जयकार और रंग बिरंगे वस्त्रों मे सुसज्जित रमणियों के सुमधुर कंठों से निसृत गीतों की ध्वनि कुक्षी के गगनमंडल में गूंज उठी। नगर के मुख्य मार्गों से होता हुआ यह चल समारोह दीक्षा स्थल पर आया । उल्लेखनीय बात यह है कि इस चल समारोह में विश्व पूज्य प्रातःस्मरणीय श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., अपने शिष्य परिवार पू. मुनिराज श्री धनविजयजी म.सा. पू. मुनिराज श्री रूपविजयजी म., पू. मुनिराज श्री मोहनविजयजम., पू. मुनिराज श्री लक्ष्मीविजयजी म., पू. मुनिराज श्री दीपविजयजी म., एवं पू. मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी म. आदि के साथ चल रहे थे । इन सबके मध्य में रथ पर बैठे जगन्नाथ वर्षीदान देते हुए चल रहे थे ।
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