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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथा
मानव की एक बड़ी विडम्बना रही है कि वह अपनी समस्याओं का समाधान अपने अन्दर न खोज कर बाहर खोजता है। वह पाप पंक से मुक्त होना चाहता है। वह सोचता है कि तीर्थों में स्नान करने से मैं पाप मैल से मुक्त हो जाऊँगा। पर प्रश्न यह है कि पाप का मैल आत्मा पर लगा है तो वह तीर्थ स्नान करने से किस प्रकार मिट सकेगा। जैनधर्म का यह वज़ आघोष है कि तीर्थों में जाकर या तीर्थ में स्नान करके तुम पाप से मुक्त नहीं बन सकते। उसके लिए तो तुम्हें अपने अन्दर ही अहिंसा भगवती की पतित पावनी गंगा की निर्मल धारा में डुबकी लगानी होगी। तुम्हारी आत्मा में अहिंसा, प्रेम और सन्तोष की पवित्र धाराएँ बह रही हैं। उन धाराओं में अवगाहन करें। तभी तुम पाप से मुक्त बन सकते हो।
एक वैदिक महर्षि ने कहा है "आत्मा एक नदी है उस नदी में संयम का पवित्र जल भरा पड़ा है, ब्रहमचर्य उस नदी के शक्तिशाली तट है इसके जल में स्नान करना चाहिए। अहिंसा और सत्य की गंगा में स्नान करने से आत्मा की विशुद्धि होती है। आत्मा की विशुद्धि के लिए अहिंसा बहुत ही आवश्यक है। जल से तन शुद्धि हो सकती है परन्तु मन और आत्मा नहीं।"
इस विराट विश्व में जितने भी प्राणी हैं उन सभी की एक ही भावना और कामना है। हम जीऐं किन्तु मरें नहीं। सभी जीव जीना चाहते हैं, कोई भी जीव मरना नहीं चाहता। इसीलिए जैन धर्म ने ये स्वर बुलन्द किया कि “जीओ और जीने दो।" स्वयं भी आनंद से जीओ, और दूसरों को भी आनंद से जीने दो। तुम किसी प्राणी को जीवित नहीं कर सकते तो तुम्हें किसी प्राणी को मारने का भी अधिकार नहीं है। अहिंसक व्यक्ति किसी भी प्राणी को सताता नहीं, स्वयं कष्ट सहन कर लेता है पर वह दूसरों को कष्ट नहीं देता। उसके अन्तर्मानस में वसुधैव कुटुम्बकम् की भव्य भावना लहलहाती है जिससे वह किसी भी प्राणी को मन, वचन और काया से कष्ट नहीं देता है। वह सदा दूसरों को सुखी बनाने का प्रयास करता है। सभी जीव सुखी बनें, कोई भी कष्टयुक्त जीवन न जीये यही उसकी मंगल भावना होती है।
अहिंसा साक्षात् परम ब्रह्म है। जो साधक अहिंसा की उपासना करता है वह सद्गुणों की उपासना करता है। उसके जीवन में सद्गुणों के सुमन खिलते हैं, महकते हैं। जिसकी सुमधुर सौरभ से जन-जन का मन आल्हादित होता है। अहिंसा की सही परीक्षा ग्रन्थों को पढ़ने से नहीं होती, उसकी परीक्षा होती है आत्मचिन्तन से। जब कभी भी उसके जीवन पर आपत्ति के काले बादल मंडराते हैं तब वह दूसरों पर दोष न मंढ़कर यह सोचता है कि मेरे अशुभ कर्म के कारण ये कष्ट आये हैं। दूसरे व्यक्ति तो निमित्त हैं वस्तुतः इसका मूल कारण मेरा उपादान ही है। फिर मैं रागद्वेष कर क्यों नये कर्मों का अनुबन्धन करूँ।
अहिंसक साधक यह सोचता है कि जो वस्तु मुझे प्रिय नहीं है वह दूसरों को कैसे प्रिय होगी। जो मेरे को प्रतिकूल है वह दूसरों को भी प्रतिकूल है। इसीलिए वह दूसरों के साथ बहुत ही मधुर व्यवहार करता है। उसका प्रत्येक व्यवहार दूसरों को शांति प्रदान करने वाला होता है। प्रतिकूल व्यवहार का मूल कारण है काषायिक वृत्तियों, रागद्वेषयुक्त प्रवृत्तियाँ जिनके कारण व्यक्ति दूसरों के साथ सद्व्यवहार नहीं कर पाता पर जिसके जीवन अहिंसा का विराट सागर तरंगित हो रहा हो वह स्व और पर के भेद को भूलकर सभी के साथ ऐसा व्यवहार करता है जिसमें विनय और विवेक का प्राधान्य होता है स्नेह और सद्भावना का साम्राज्य होता है।
आज जो द्वेष का दावानल धूं-धूं कर सुलगने के लिए ललक रहा है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को नष्ट करने पर तुला हुआ है। उसका हल अहिंसा है। भगवान् महावीर ने मानव को संदेश दिया कि मानव तू स्व की सीमा में ही संतुष्ट रह, पर की सीमा में प्रविष्ट न हो। जब मानव पर की सीमा में प्रविष्ट होता है तभी वह दूसरों के साधनों को प्राप्त करने के लिए लालायित होता है। उन्हें छीनने का दुस्साहस करता है। यही संघर्ष का मूल है। जैसे सरिता की सरस धाराएँ अपनी मर्यादा में रहती है तब तक उन धाराओं से सभी का लाभ होता है पर जब वे धाराएँ सीमा का उल्लंघनकर आस-पास के प्रदेश पर अधिकार जमाना चाहती हैं तब बाढ़ का रूप धारण कर लेती हैं और सर्वत्र हा-हाकार मच जाता है। यही दृश्य मानव का है। जब मानव स्वयं में रहता है तब तक शांति की सुरसरिता प्रवाहित होती है और जब वह स्वयं की सीमा विस्मृत होकर दूसरों के अधिकार को हड़पना चाहता है। तब विग्रह का वातावरण पैदा होता है। अहिंसा व्यक्ति को स्व की सीमा में केन्द्रित करती है। अहिंसक व्यक्ति अपने आप में सीमित रहना चाहता है।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 48 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति
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