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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
अहिंसा का दर्शन : जीवन का निदर्शन)
आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्रमुनिजी म.सा. के अन्तेवासी
-दिनेश मुनि अहिंसा हमारे जीवन का मूल आधार है। व्यक्ति ने विश्वबन्धुत्व की ओर जो मुस्तैदी से कदम बढ़ाया है उसके अन्तः स्थल में अहिंसा की भव्य भावना ही रही है। मानव के उच्चतम आदर्शों का सही मूल्यांकन अहिंसा के द्वारा ही सम्भव है। हिंसा, विनाश, अधिकारलिप्सा, पदलोलुपता और स्वार्थान्धता से परिपूर्ण मानव को अहिंसा ही सही मार्ग दिखला सकती है। अहिंसा के द्वारा ही मानव जन-जन के मन में प्रेम का संचार कर सकता है। बिना अहिंसा के मानव न स्वयं को पहचान सकता है और न दूसरों को ही। जीवन के निर्माण के लिए अहिंसा बहुत ही आवश्यक है। विश्व में जितने भी महापुरुष हुए जिन्होंने अपना आध्यात्मिक समुत्कर्ष किया, वे सभी अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही आगे बढ़े थे। अहिंसा ने इन्सान को भगवान बनाया। प्रेम के देवता महात्मा ईसा ने एक स्थान पर कहा है - हे मानव ! यदि तू मंदिर में प्रार्थना के लिए जा रहा है और अन्तर्मानस में किसी के प्रति द्वेष की भावना रही है तो तू मंदिर में जाने से पूर्व उस व्यक्ति के पास जा जिसके प्रति तेरे मन में दुर्भावनाएँ पनप रहीं हैं, उससे अपराध की क्षमा माँग। इतना ही नहीं यदि तेरे एक गाल पर कोई एक चांटा मार दे तो तू दूसरा गाल भी उसके सामने कर दे। यह अहिंसा की उदात्त भावना है जो विरोध को भी विनोद के रूप में परिवर्तित कर देती है।
अहिंसा जैनधर्म और जैन दर्शन का मूल आधार है। जैनधर्म का नाम स्मरण आते ही अहिंसा का सहज स्मरण हो आता है। जैनधर्म ने आध्यात्मिक उन्नति के लिए सर्वप्रथम स्थान अहिंसा भगवती को दिया है। सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह जो व्रत हैं उन सभी व्रतों का मूल आधार अहिंसा है। जहां पर अहिंसा है वहाँ पर ही अन्य व्रत पनपते हैं, फलते और फूलते हैं। अहिंसा को छोड़कर कोई भी व्रत नहीं रह सकता। जैनधर्म ने ही नहीं अपितु विश्व के जितने भी धर्म और दर्शन हैं उन सभी ने अहिंसा के पथ को अपनाया है। यह भी सत्य है कि सभी समान रूप से उसका विश्लेषण नहीं कर सके। कितने ही धर्म और दर्शन वाले मानव तक ही अपने चिन्तन को रख सके। उनकी दया मानव दया तक सीमित रही। उनकी अहिंसा की परिभाषा में मानव की सुरक्षा है तो कितने ही दार्शनिकों ने मानव से भी आगे बढ़कर पशु-पक्षियों की हिंसा से विरत रहने का सन्देश दिया किन्तु जैनधर्म तो उससे भी आगे बढ़ा। उसने पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीव मानकर उनकी रक्षा करने पर भी बल दिया। आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व भगवान महावीर ही ऐसे एक महापुरुष हुए जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में इन सबकी हिंसा से बचने का सन्देश दिया है। हम आचारांग सूत्र को उठाकर देखें वहां भगवान महावीर की वाणी स्पष्ट रूप से झंकृत हुई है कि बिना अहिंसा की भावना को विकसित किये कोई भी साधक आध्यात्मिक उत्कर्ष को प्राप्त नहीं हो सकता।
अहिंसा एक गंगा है। पौराणिक काल में गंगा के लिए भारत के मर्धन्य मनीषियों ने एक कमनीय कल्पना की है। उन्होंने गंगा की तीन धाराएं मानी हैं, उसकी एक धारा स्वर्गलोक में है, दूसरी धारा मानवलोक में है और तीसरी धारा पाताललोक में है। उन्होंने बतलाया गंगा अपवित्र को पवित्र बनाती है। उसमें जो डुबकी लगाता है वह पाप के मल से मुक्त हो जाता है। स्वर्गलोक के निवासियों को पाप से मुक्त करने के लिए गंगा की धारा ऊर्ध्वलोक में है जो आकाश गंगा के नाम से विश्रुत है, पाताल निवासियों के लिए पाताल गंगा की कल्पना है और भूतल निवासियों के लिए भूतल पर गंगा बह रही है। अहिंसा रूपी गंगा की भी तीन धाराएँ हैं। एक धारा मन लोक में प्रवाहित हो, दूसरी धारा वचन में तो तीसरी धारा काय लोक में। जब तीनों लोक में यानि मन, वचन, काया में अहिंसा की धारा प्रवाहित होती है तो तीनों लोक पावन बन जाते हैं। यदि इन्सान देवत्व को प्राप्त करना चाहता है तो उसे अहिंसा की गंगा में अवगाहन करना होगा तभी वह आत्मा से महात्मा और महात्मा से परमात्मा पद को प्राप्त कर सकता है।
हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति
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हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द ज्योति
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