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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ निष्काम आराधक भंवरसिंह पंवार, राजगढ़ वर्तमान आचार्य देवेश परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. सरल स्वभाव समदृष्टि परोपकारी एवं उदार व्यक्तित्व के स्वामी है । सदैव, जप, क्रिया तथा समाजहित, धर्मप्रचार के चिन्तन् में व्यस्त रहते हैं । क्रोध, अभिमान, झुंझलाहट तो कभी आपके निकट भी नहीं आ पाती । दर्शनार्थी, सेवा भावी एवं भक्तगणों को 'धर्मलाभ' का आशीष सदैव प्रसन्न मुद्रा में मिलता ही रहता है । ईश्वर की पूजा, ईश्वर के नाम का स्मरण आराधना जप, तप, माला, अलग-अलग माध्यम है । अपने आराध्य अपने ईष्ट की आराधना के, किन्तु उन माध्यमों में निमग्नता, तल्लीनता कितनी है यह विचारणीय प्रश्न है? सामान्यतः हम जब भी पूजा या आराधना करते हैं तब 'ध्यान' का केन्द्रीय होना बहुत जरूरी है, साथ ही हमारी आराधना निष्काम हो । आराधना से सम्बन्धित चर्चा करने का सौभाग्य मुझे आचार्य भगवन्त से मिला उस चर्चा को जितना मैं समझ पाया उसे अपने शब्दों में लिखने का प्रयास करता हूं | जीव संसार में बन्द मुट्ठी के आता है और हाथ पसारे बिदा होता हैं। जीव के प्रारब्ध सुकर्म, त्याग एवं साधना के प्रतिफल में मानव योनि प्राप्त होती हैं । कहा जाता है कि 'मानव' जन्म भाग्य से ही प्राप्त होता है । ऐसी दुर्लभ योनि प्राप्त करने के पश्चात भी जीव संसार चक्र में पड़कर भटकता रहा, अपने कर्तव्य को विस्मृत कर दिया तो फिर वर्तमान और भविष्य के उद्धार के लिये न तो समय मिलेगा न अवसर । अतः जीव जन्म के समय बन्द मुट्ठी से संसार में आया है अर्थात अपने साथ सुकर्म, साधना, तप, तेज रूपी सम्पति लाया है उसके द्वारा पुरुषार्थ साधना भजन व भक्ति में वृद्धि कर अपने ज्ञान का उपयोग परोपकार में करते हुए स्वयं को एवं अन्य को लाभ पहुंचावे वर्तमान एवं भविष्य को भव्य व उज्ज्वल बनावे, उस परमपिता परमात्मा का स्मरण प्रसंग रहे जिसकी कृपा से मानव जैसी दुर्लभ योनि प्राप्त हुई किन्तु होता इससे विपरीत है । संसार में आकर जीव काम, क्रोध, लोभ की ओर आकर्षित व लालायित होकर अपने कर्तव्य व धर्म को भूल जाता है और निरर्थक आडम्बर की ओर आकर्षित हो जाता है । परिणाम यह होता है कि जो प्रारब्ध एवं पूर्व जन्म जन्मान्तर की अर्जित पूंजी को बढ़ाने के स्थान पर समाप्त कर कर्म, पाप, निन्दा का बोझ ढोते ढोते पुनः चौरासी लाख योनियों में भटकते हुए संसार से बिदा होता है । उस समय उसके हाथ खुले रहते हैं जो कमाया था सब यही नष्ट व समाप्त हो गया, जो लाया था वह भी यहीं गुम हो गया । भूतधन भी गया और कर्म की गठरी तैयार हो गई। अब प्रश्न यह उठता है कि हम इन विषमताओं एवं विपरित परिस्थितियों से कैसे अपने आपको उभारे । इसके लिये 24घन्टे के समय में से कुछ समय निकाल कर ईश्वर आराधना भक्ति, भजन, नाम का स्मरण, धार्मिक ग्रन्थों का वांचन जो भी रुचिकर लगे करें । दिनचर्या में धार्मिक कार्य हेतु समय निश्चित कर लेवें एवं उसको दृढता से पालन करें । शनैः शनैः जब धार्मिक कार्य हमारी दिनचर्या का अंग बन जावेगा एक आदत बन जावेगी तब उसके सम्पादन में व्यतीत होने वाले समय में भी वृद्धि करते जावे... कुछ ही समय में यह आदत अनिवार्यता में परिवर्तित हो जावेगी, जैसे भोजन जल अनिवार्य है जीवित रहने हेतु ऐसे ही धार्मिक कार्य भी अनिवार्य हो जावेंगे तब हम इस साधना भक्ति या जो भी हम इसे नाम दें संज्ञा दें, को धीरे-धीरे सकाम से निष्काम ही ओर ले जावेंगा । प्रारम्भ में तो हमारे मन में, कहीं न कहीं ऐसे विचार भाव अथवा इच्छी होती है कि हम जो भी धार्मिक कार्य करें उसके प्रतिफल में हमें कुछ प्राप्त हो, जाने आथवा अनजाने में हम ऐसी अपेक्षा रखते हैं । किन्तु अभ्यास के द्वारा जब परिपक्वता आ जाती हैं । तब प्रतिफल की कामना या आशा हो त्याग कर भक्ति या आराधना कर पाना सम्भव हो जाता है । यद्यपि ईश्वर कभी भी अपने भक्तों हो न तो कष्ट ही देता है न वपित्ति। ईश्वर तो उदार सदभावी एवं भक्त वत्सल है । वह तो धर्मात्मा व पापी सभी का रक्षक एवं सभी का हितैषी है । ईश्वर को किसी को भी कष्ट देने का समय नहीं है वह तो समस्त जीवों के हित के कार्य में जुटा रहता है । हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 64हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्ट ज्योति Sam jiruspany
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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