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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथ
प्रयास यह होना चाहिये कि हम जब नियमित साधना, आराधना भक्ति करने लग जावें एवं उसमें मन रम, जावे तब त्याग प्रवृति का उपयोग कराते हुए 'निष्काम साधना आरम्भ करें । संसार असार है उसमें जितने लिप्त होगें उतने दल-दल में फंसते जावेंगे, इसका जितना त्याग करेंगे उतने ईश्वर की प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होते जावेंगे । संसार में साधना करने वाले तीन भावना, विचरने से साधना (तप) करते हैं वह तो वे जो कल की चाह से साधना करते हैं, दूसरे क्यों कर्म करते हैं यह सोचकर कि ईश्वर इसका प्रतिफल दे देंगे ही । तीसरे वे जो साधना कर्म, तप को कर्तव्य समझकर करते हैं फल की कामना नहीं होती । पहले गृहस्थ दूसरे भक्त व तीसरे ज्ञानी माने जाते हैं । अपने स्वयं के लिये मांगना याचना करना हैं (भीख मांगना) दूसरों के हित हेतु मांगना सेवा है । (परोपकार है) हम जो कार्य करते हैं, कर रहे हैं चाहे वह व्यापार हो, नौकरी हो, मजदूरी हो अथवा साधु (त्याग वृति हो) हो, हमारे सुपुर्द जो भी कार्य या दायित्व है उसका निर्वाह ईमानदारी से करना चाहिये एवं प्रयास यह होना चाहिये कि वह निष्काम हो । एक कर्मचारी जिसका वेतन नौ हजार रुपया प्रतिमाह है वह यदि कार्य नहीं की करता मात्र उपस्थित होकर उपस्थित के हस्ताक्षर ही करता है तो भी उसका वेतन जो 300 रू. प्रतिदिन होता है, चालू है | क्या वह अपने स्वयं के साथ मालिक (शासन) के साथ तथा दायित्व का निर्वाह सजगता व ईमानदारी से कर रहा हैं या न ही इसका मूल्यांकन सही-सही तो हम स्वयं ही कर सकते हैं । कोई यदि काम टालने या अकर्मण्यता बरतने का आदी हो तो उससे कार्य करवाना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव जैसा हैं । ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक घोडे को पानी पीने के लिये जलाशय तक ले जाय जा सकता है, पानी पीने के लिये बाध्य नहीं किया सकता।
निष्काम साधना या तप से तात्पर्य अपने दायित्व, कर्तव्य को पूर्ण निष्ठा से निर्वाह करना साथ ही यदि कोई अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा है तो उसे भी कर्तव्य बोध का मार्ग प्रशस्त करना यह प्रकृति का नियम है कि क्रिया के बाद प्रतिक्रिया होती है । कार्य का निर्वाह होने पर फल या परिणाम तो सामने आवेगा ही फिर क्यों हम कार्य के सम्पादन के पूर्व ही प्रतिफल के सम्बन्ध में सोचे ।
प्राचीन ग्रन्थ हमें दिशा बोध देते हैं कि 'साधना' या 'तप' के द्वारा पूर्व में कितने ऋषि, मुनि व त्यागी लक्ष्य प्राप्त कर सके मोक्ष प्राप्त कर सके । लक्ष्य प्राप्ति या मोक्ष हेतु तपस्या, कामना का त्याग एक एकाग्रता से शान्त एवं एकांत स्थान पर सब ओर से चित को हटाकर साधना में लिप्त होवे, यह सब अभ्यास के द्वारा शनैः शनैः सम्भव हो सकता है ।
ऐसा कहा गया है कि कलयुग में ईश्वर प्राप्ति मोक्ष प्राप्ति अत्यधिक सहज व सरल है क्योंकि सतयुग में घोर तपस्या एवं साधना द्वारा कई वर्षों में ईश्वर ही कृपा प्राप्त हो पाती थी किन्तु कलयुग में मात्र ईश्वर के नाम के स्मरण मात्र से ही प्रभु प्रसन्न हो जाते हैं और कृपा करते हैं । कहा भी है - कलयुग केवल नाम अधारा कई वर्षों ही तपस्या के फल के तुल्य कलियुग में मात्र नाम स्मरण से ही प्राप्ति सम्भव है, और यदि नाम स्मरण निष्काम हो, एकाग्रता से हो तो सोने में सुहागा।
साधन, तपस्या, नाम का स्मरण अथवा धार्मिक कार्य हमें सद्मार्ग की ओर ले जाते हैं साथ ही बुराइयों अज्ञानताओं दोषों एवं अपराध प्रवृतियों से विमुख करते हैं । तप से अन्य बल में वृद्धि होती है, ज्ञान का विकास होता है, ज्ञान से ध्यान ध्यान से चिन्तन और चिन्तन से प्रभु के प्रति चाह जागृत होती हैं । जब चाह का प्रादुर्भाव हो गया तो राह तो अपने आप दृष्टिगत हो जावेगी । कहा भी है जहां चाह है वहां राह है । जब राह दृष्टिगत हो गई तो लक्ष्य प्राप्ति में अधिक विलम्ब नहीं होगा।
अन्त में हम इतना ही स्मरण रखे कि साधना, तप, नाम-स्मरण रागद्वेष रहित हो स्वार्थ एवं आकांक्षा से परे हो साथ ही अपने लिये कम दूसरों के हित हेतु अधिक हो । दीन, अभाव ग्रस्त एवं बीमार के कल्याण की कामना निहित हो । 'दरिद्र' में भी नारायण का वास होता है, अतः दरिद्र नारायण के सुख व कल्याण की भावना हम में विकसित हो, तभी हमारी साधना सच्चे अर्थों में 'निष्काम साधना के निकट पहुंच पावेगी ।
उक्त विचार धारा आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. से चर्चा के अन्तर्गत प्राप्त हुई । यदि सभी जन् निष्काम भाव से पूजा, आराधना करें व आचार्य भगवंत के विचारों को आत्मासात् कर जीवन में उतारें, तो समाज व राष्ट्र से अशान्ति, बैर-भाव व अराजकता समाप्त हो सकती है । वन्दन् नमन् ।
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