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________________ Jain श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन व संलेखना : जैन दृष्टि में उपप्रवर्तिनी श्री स्वर्णकान्ताजी म. की शिष्या साध्वी स्मृति, एम. ए. मृत्यु अपरिहार्य धर्म है, ऐसा समझकर मनुष्य का मरणान्त समय में परलोक उत्तम हो, उसे सद्गति मिले, इसके लिए वह अच्छे भावों की भावना भाता है । प्रत्येक दर्शन में इसके लिए भिन्न-भिन्न पद्धतियां अथवा धारणाएं स्वीकार की गई है । जैन दर्शन में भी इस विषय पर गहन चिन्तन किया गया है, जिसे सल्लेखना व्रत से अधिक समझा जाता है । 1. सल्लेखना की निरुक्ति परक व्याख्या : सल्लेखना में 'सत्' और 'लेखना इन दो शब्दों का संयोग है । सत् का अर्थ है - सम्यक् और लेखना का अर्थ है कृश करना सम्यक् प्रकार से कषाय एवं शरीर को कृश करना सल्लेखना है' आचार्य पूज्यपाद बाहरी शरीर एवं भीतरी कषायों को, उन्हें पुष्ट करने वाले कारणों को उत्तरोत्तर घटाते हुए सम्यक् प्रकार से लेख अर्थात् कृश करना 'सल्लेखना बतलाते हैं। श्रावक जब यह देखे कि यह हमारा शरीर आवश्यक संयम पालन करने में अशक्त और असमर्थ हो रहा हैं अथवा मृत्यु का समय सन्निकट आ गया है, तो सर्वप्रथम उसे संयम को अंगीकार कर सल्लेखना धारण करनी चाहिए । 1 उपासक दशाङ्गसूत्र में सल्लेखना के लिए अपश्चिम मारणान्तिक सल्लेखना शब्द प्रयुक्त हुआ तत्त्वार्थसूत्र में "मरणान्तिकी संलेखनां जोषिता" कहकर साधक को मृत्यु काल समीप आने पर प्रीतिपूर्वक सल्लेखना धारण करने को कहा गया है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार में उपसर्ग, अकाल, बुढ़ापा अथवा असाध्य रोग आदि होने पर धर्म पालन हेतु कषायों को कृश करते हुए शरीर त्याग का नाम सल्लेखना बतलाया गया है। चारित्रसारकार आचार्य कुन्दकुन्द के मत में बाहरी शरीर का और भीतरी कषायों का क्रमशः उनके कारणों को घटाते हुए सम्यक् प्रकार से क्षीण करना ही सल्लेखना है जबकि आचार्य वसुनन्दि कहते हैं कि वस्त्र मात्र परिग्रह को रखकर और अवशिष्ट समस्त परिग्रह को छोड़कर अपने ही घर में अथवा जिनालय में रहकर जो श्रावक गुरु के समीप मन-वचन-काय से अपनी भले प्रकार आलोचना करके पान के सिवाय शेष तीन प्रकार के आहार का त्याग करता है, उसकी वह विधि विशेष ही सल्लेखना है। 2. सल्लेखना : चतुर्थ शिक्षाव्रत : श्रावक के द्वादश व्रतों में जो चार शिक्षाव्रत हैं, उनमें आचार्य कुन्दकुन्द ने चौथा शिक्षाव्रत सल्लेखना माना आचार्य देवसेन, जिनसेन एवं वसुनन्दि आदि ने इस विषय में आचार्य कुन्दकुन्द का ही अनुसरण किया है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार ने व्रतों से पृथक रूप में सल्लेखना की महत्ता प्रतिपादित की है। स्वामि समन्तभद्र ने भी देशावकाशिक, सामायिक पोषधोपवास, वैय्यावृत्य को शिक्षाव्रत माना है" । कतिपय परवर्ति आचार्यों ने विशेषकर पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्दि, सोमदेव, अमितगति आदि आचार्यों ने स्वामी समन्तभद्र का ही अनुसरण किया है। 3. सल्लेखना कब करनी चाहिए : साधक मुनि मृत्यु का समय आने पर सल्लेखना आदि द्वारा शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से शरीर के मोह को त्याग कर मृत्यु के तीन प्रकार" में से किसी एक के द्वारा सकाम मरण को प्राप्त करें" मूलाराधना" में सल्लेखना कब करनी चाहिए इसका वर्णन करते हुए निम्न सात कारण दिए गए है। I संयम को परित्याग किए बिना जिस व्याधि का उपचार करना संभव नहीं हो, ऐसी स्थिति समुत्पन्न होने पर सल्लेखना कर लेना चाहिए। 1. Intera हेमेन्द्र ज्योति * मेजर ज्योति 15 हेमेजर ज्योति हेमेन्द्र ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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