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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 4 अपरिग्रहः एक मौलिक चिंतन है
-फतेहलाल कोठारी, एम.ए.एल.एल.बी. एडवोकेट
साहित्यरत्न, रतलाम (म. प्र.) जैन दर्शन के मौलिक मूलभूत सिद्धान्तों में अपरिग्रहवाद भी एक मौलिक सिद्धान्त माना गया है । इसकी मौलिकता एवं उपादेयता स्वतः सिद्ध है । वर्तमान में लोक जीवन, अत्यन्त अस्तव्यस्त हो गया है । इस अस्तव्यस्तता एवं वर्ग संघर्ष को समाप्त करने में अपरिग्रहवाद पूर्णतया समर्थ है । परिग्रह के चिन्तन के पहले परिग्रह का समझना अधिक महत्वपूर्ण है। परिग्रह क्या है :
परिग्रह अपने आप में क्या है? यह एक शाश्वत प्रश्न सभी के सामने उपस्थित है। परिग्रह के प्रश्न को समझे बिना परिग्रह का निराकरण हो नहीं सकता । परिग्रह एक पारिभाषिक शब्द है। आगम में इसका कई स्थान पर पर्याप्त वर्णन मिलता है । जिससे आत्मा सर्वप्रकार के बंधन में पड़े वह परिग्रह है। परिग्रह का अर्थ जीवन निर्वाह से संबंधित अनावश्यक पदार्थों का संग्रह है | धन, संपत्ति, भोग, सामग्री आदि किसी भी प्रकार की वस्तुओं का ममत्व मूलक संग्रह ही परिग्रह है । होर्डिगं की वृत्ति आपत्तियों को आमंत्रित करती है। परिग्रह वृति के धारक व्यक्ति समाज द्रोही मानवताद्रोही ही नहीं अपितु आत्मद्रोही भी है। जीवन को भयाकान्त करनेवाली, सारी समस्याओं की जड़ परिग्रह है। समाज में भेदभाव की दिवार खड़ी कर विषमता लाने वाली एक मात्र परिग्रहवृत्ति ही है। देश में समस्या अमीर गरीब की नहीं है अर्थ संग्रह की है। अर्थ को साध्य मानकर युद्ध हुवे। पारिवारिक संघर्ष, वैयक्तिक वैमनस्य एवं तनाव इस सबके मूल में रही है अर्थ संग्रह की भावना। अंग्रेजी नाटककार शेक्सपियर ने कहा था कि:
संसार में सब प्रकार के विषाक्त पदार्थों में अर्थ संग्रह भयंकर विष है । मानव आत्मा के लिये अद्वैत दर्शन के प्रणेता शंकराचार्य ने ठीक ही कहा था कि अर्थमनर्थ मानव नित्यम् अर्थ सचमुच ही अनर्थ है । शास्त्रकारों ने अर्थ के इतने अनर्थ बतलाए है फिर भी इस अर्थ प्रधान युग में अर्थ को (पैसौंको) सब कुछ समझा जा रहा है । संग्रहखोरी, संचयवृत्ति पूंजीवाद सब पापों के जनक है । इसकी शाखाएं प्रशाखाएं ईर्ष्या द्वेष कलह, असंयम आदि अनेक रूपों में विभक्त है,फैली है । जहां परिग्रह वृत्ति का बोलबाला रहता है, वहां मनुष्य अनेक शंकाओं से परे और भयों से आक्रान्त रहता है । अनेक चिन्ता चक्रों में फंसा रहता है । परिग्रह वृत जीवन के लिये एक अभिशाप है। जहां भी यह वृत्ति अधिक होती है वहां मनुष्य का जीवन अशान्त हो जाता है । अनावश्यक खर्च, झूठी शान पैसे का अपव्यय, दिखावा आदि बातों के परिवेश में ही परिग्रहवृत्ति, विशेष रूप से पनपती है । जैनागम में स्थान स्थान पर परिग्रह को बहुत निंद्य आपात, रमणीय बतलाकर उसके परित्याग के लिये विशेष बलपूर्वक प्रेरणा दी गई है । नरकगति के चार कारणों में महापरिग्रह को एक स्वतन्त्र कारण बतलाया है । आत्मा को सब ओर से जकड़ने वालों यह सबसे बड़ा बंधन है | समस्त लोक के समग्र जीवों के लिये परिग्रह से बढ़कर कोई बन्धन नहीं है । सामान्य रूप से परिग्रह की कल्पना धन सम्पत्ति आदि पदार्थों से ली जाती है, ममता बुद्धि को लेकर वस्तु का अनुचित संग्रह परिग्रह है । परिग्रह आसक्ति है । आचार्य उमास्वामी कहते हैं मूर्छा परिग्रह, मूर्छा का अर्थ आसक्ति है। वस्तु एवं पदार्थ के प्रति हृदय की आसक्ति ही मेरापन की भावना ही परिग्रह है । किसी भी वस्तु में छोटी हो या बड़ी जड़ हो या चैतन किसी भी रूप में, हो अपनी हो या पराई, उसमें आसक्ति रखना या उसमें बंध जाना उसके पीछे अपना आत्मविवेक खो बैठना परिग्रह है, एक आचार्य ने और भी परिग्रह की एक परिभाषा देते हुए कहा है कि मोहबुद्धि के द्वारा जिसे चारों ओर से ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है । परिग्रह के तीन भेद है | इच्छा, संग्रह, मूर्छा अनाधिकृत वस्तु समूह को पाने की इच्छा करने का नाम इच्छारूप परिग्रह है और वर्तमान में मिली हुई वस्तु को ग्रहण कर लेना संग्रह रूप परिग्रह और संग्रहित वस्तु पर ममत्व भाव और आसक्तिभाव मूर्छा रूप परिग्रह कहलाता है ।
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