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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
विषय कषायों में लीन संसारी मनुष्य जिसकी प्रवृति ठीक विपरीत दिशा में हो वह ऐसे उपवासों का महत्व ही नहीं समझ सकता। उसकी प्रवृति रोगी' कहलाती है। जिसे कितनी भी उपलब्धि क्यों न हो जाये संतुष्टि और सुख प्राप्त ही नही हो सकता। उसको परमार्थ सूझ नहीं सकता। क्योंकि वह स्वार्थ में लीन रहता है। ऐसा व्यक्ति धर्म के नाम पर प्रदर्शन करते हुए कर्मकांडी बनकर अधर्म ढ़ा सकता है। किन्तु किसी को सुख नही दे सकता। धर्म की आड़ में अधिकतर ड्रेस का प्रदर्शन, ड्रिल और प्रमादी सत्ता देखने में जहां जहां आती है, वे जैनधर्म के वीतरागत्व और अपरिग्रहवाद को समझ नहीं पाते। अनेकान्त की दृष्टि में आंका गया सत्य मार्ग सदैव ही सत्यता की ओर दृष्टि रखेगा। मृत्यु की तरह सत्य जिसमें ायें छूटती हैं, आत्मतत्त्व अजर अमर रहता है। ऐसे चिन्तन की राह सदैव एक ही होगी इसीलियें जैनेतर चिन्तकों को आश्चर्य होता है कि सभी तीर्थंकरों, सभी आचार्यों ने एक ही बात दोहराई है। सत्य की महत्ता है यह जो कि शाश्वत है। किसी ने ठीक कहा है- "जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। ___मुझे तो अपने जर्मनी आवास काल में केथीलों के घंटे भी मंदिर की अभिषेक वाली गूंज की स्मृति दिलाते थे और स्वयमेव “णमोकार मंत्र” सुनाई पड़ने लगता था।
आहारचर्या में साधुओं और गृहस्थों द्वारा ताजा भोजन, गर्म पानी, सीमित आहार और रसी त्याग शरीर को विकारों, रोगों से बचाते हुए परिमार्जित करके, शरीर को अप्रमादी, चुस्त, सुनियमित और संवेदी बनाते है। चिन्तन
और उपयोग उसे विशुद्धि की ओर प्रेरित करतें है। अतः वीतरागी साधु सभी जगह सम्मान का पात्र बना रहता है। जबकि व्यर्थ पदार्थ शरीर से पूर्ववत् निष्काषित होते है। अतः शरीर कांतिमय बन जाता है।
अन्य रोगियों को जहां तीन दिन की औषधि सेवन भी इतना स्वास्थ्य प्रदान नहीं कर पाती मात्र वहीं एक खुराक नियमित आहारी/संयमी को तुरंत आरोग्य लाभ दिलाती है।
मेडिकल विज्ञान को चाहिए कि वह संयमियों के जीवन के इस उज्ज्वल पक्ष के महत्व को समझकर जनसामान्य के सम्मुख लावें ताकि जनसामान्य भी इसका लाभ लें।
आयुर्वेद परम्परा भी उपवासों तथा कल्पादि को महत्व देती है। यह चिकित्सा परम्परा मूलतः द्वादशांगी जैन धर्म के 'प्राणावाय' नामक बारहवें अंग के 14वें पूर्व का वैयावृत्य (सेवामय) नामक धर्मव्रत के अतर्गत पैदा हुई है। जो प्रारम्भ में अष्टांग रूप प्रचलित थी। वहीं परम्परा आजकल 'नेचरोपैथी' कहकर जानी जाती है जिसमें उपयोग की मर्यादाओं में कुछ ढील आ गई है। यह बाद में संहिताओं के रूप में लिखी गई जिसे बाद में अठारह संहिताओं के संकलन से आयुर्वेद का रूप दे दिया गया। आज भी वह परम्परा जैन संघों में अपने मूल रूप में प्रचलित है। तथा मूल परम्परा के जैन साधु अपनी आहारचर्या से स्वयमेव ही सुव्यवस्थित स्वस्थ रहते हैं।
आजकल पाश्चात्य नकल के अंतर्गत फ्रीज में रखा बासी भोजन तथा सारे समय खाते पीते रहना अच्छा माना जाता है जो आंतों तथा आमाशय में सारे समय वजन बनाये रखता है। यह एन्जाइम्स को रीचार्ज होने का मौका नहीं देता। शरीर स्थूल बनकर जलांश को बढ़ा लेता है। विकार अपने आप को घुलनशील बनाने हेतु उस पानी को रोककर तरह तरह की तकलीफें पैदा कर देते है। फलस्वरूप हृदय पर बोझ बढ़ने लगता है, रक्तचाप बढ़ता है, शरीर सुस्त हो जाता है और व्याधियां पैदा हो जाती हैं। मनुष्य अधिक खाते हुए अधिक व्यायाम की ओर बढ़ता है फलस्वरूप बुढ़ापा जल्दी आ जाता है। शरीर सदैव जरा और मरण से भयभीत रहता है।
जैन साधुओं तथा श्रावकों के उपवास उन्हें संल्लेखना के लिए तैयार करते हैं। अविरल हुए क्षुधा परीषह को सहना उनमें मृत्यु से निडरता पैदा करता है। संपूर्ण रूप से आहार जल त्याग करते हुए साधु जागृत अवस्था में निर्विकल्प बन शरीर त्याग करतें हैं। यह सर्वोत्तम आदर्श है।
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