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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
श्रीविजयरत्नसूरिजी महाराजने सूरिपद दिया जिसका महोत्सव शा. नानजी भाणजीने बड़े समारोह से किया और साहमती श्राविकाने एक सहस्र स्वर्ण मुद्राओं (मोहरों) से आपकी चरणपूजा की थी । एक समय आप बनाश नदी उतर रहे थे, तब चित्रावेल आपके चरणों में लिपटा गई थी, परन्तु आपने उसे लेने की अंशमात्र भी अभिलाषा नहीं की। गच्छभार निभाते हुए आपने जीवन पर्यन्त ही श्रीवर्द्धमानतप किया था । आपके अठारह शिष्य थे उनमें से मुख्य शिष्य श्री देवेन्द्रविजयजी को सूरिपदारूढ कर निर्दोष चरित्र पालन करते हुए आप संवत् 1827 में राजस्थान के प्रसिद्ध नगर बीकानेर में स्वर्गवासी हुए। 65. श्रीविजयदेवेन्द्रसूरिजी :
जन्म संवत् 1785 रामगढ में । पिता ओशवंशीय पनराजजी, माता मानीबाई, संसाराी नाम दौलतराज । संवत् 1827 बीकानेर में आपको सूरिपद मिला, आचार्यपदारूढ होते ही आपने जीवनपर्यन्त आयंबिल तप करने का नियम ग्रहण किया था । आपके 1 क्षमाविजय 2 खान्ति विजय 3. हेमविजय और 4. कल्याणविजय ये चार अन्तेवासी थे। इनमें से क्षमाविजय को शिथिल और अविनीत जानकर आपने गच्छ बाहर कर दिया । खान्तिविजयजी सिद्धान्त-पारगामी, प्रकृति के भद्र, परन्तु कुछ लोभी प्रकृति के थे । कोई भावुक सोने आदि के पूठे, ठवणियाँ देता तो उसे संग्रह कर लिया करते थे । उस समय हेमविजयजी कहा करते थे कि यह परिग्रह आगे शिष्यों के लिये दुःखकर होगा । अतः इसे संग्रह करना ठीक नहीं है । खान्तिविजयजी यों कहकर चुप लगाते थे कि यह परिग्रह हम अपने लिये नहीं, पर ज्ञान के लिये संग्रह करते हैं । यों करते करते खान्तिविजयजी का स्वर्गवास हो गया, तब शिष्यों में पूठे और ठवणियों के लिये परस्पर कलह होने लगा । हेमविजयजी बोले कि मैंने तो पहले ही कहा था कि यह परिग्रह आगे दुःखदायी होगा, परन्तु उस समय मेरे कथन पर किसीने ध्यान नहीं दिया । अस्तु । हेमविजयजी ने संवत् 1883 में क्रियोद्धार किया और निर्दोषवृति से रहने लगे । खान्तिविजयजी के लालविजय, दलपतविजय आदि शिष्य हुए। हेमविजयजी व्याकरण, न्याय और कार्मिक ग्रन्थों के अद्वितीय विद्वान थे । उदयपुर के महाराणाने आपको 'कार्मणसरस्वती का पद दिया था ।
एक समय देवेन्द्रसूरिजी ध्यान में विराजित थे । उन्होंने ध्यान में आगामी वर्ष दुष्काल पड़ने के चिह्न देखकर शिष्यों से कहा कि ओगणसित्तर में (1869) दुष्काल पड़ेगा । यह बात पाली-निवासी शान्तिदास सेठने सुनली और गुरु वचन पर विश्वास रख कर उसने धान्य संग्रह किया । वह खान्तिविजयादि अनेक साधुओं की आहारादि से बढ़कर भक्ति करता था परन्तु श्रीदेवेन्द्रसूरिजी महाराज तो उसके घर का आहारादि नहीं लेकर गांव में जो कुछ प्राप्त होता उससे ही सन्तुष्ट रहते थे । दुष्काल व्यतीत होने के बाद कल्याणविजयजी को आचार्यपद देकर आप संवत 1870 में जोधपुर (मारवाड़ - राजस्थान) में स्वर्गवासी हुए। 66. श्रीविजयजकल्याणसूरिजी :
जन्म संवत् 1824 बीजापुर में । पिता का नाम देसलजी, माता धूलीबाई, संसारी नाम कलजी । आप ज्योतिष और गणित शास्त्र के श्रेष्ठ विद्वान् थे । आपने अनेक ग्राम-नगरों में विहार कर उपदेश बल पर कितने ही प्रतिमा विरोधियों का उद्धार किया तथा मेवाड़ और मारवाड़ में अनेक स्थानों पर मन्दिरों की होती हुई आशातनाएं दूर करवाई। संवत् 1893 में श्रीप्रमोदविजयजी को आचार्यपद दे कर आप आहोर में स्वर्गवासी हुए । 67. श्रीविजयप्रमोदसूरिजी :
आपका जन्म गांव डबोक (मेवाड़) में गौडब्राह्मण परमानन्दजी की धर्मपत्नी पार्वती से विक्रम संवत् 1850 चैत्र शु. प्रतिपदा को हुआ था । आपका संसारी नाम प्रमोदचन्द्र था । आपने संवत् 1863 वैशाख शु. 3 के दिन दीक्षा ली थी । आपको संवत् 1893 ज्येष्ठ शु. 5 को सूरिपद मिला था । आप शास्त्रलेखनकला के प्रेमी थे और उसमें बड़े दक्ष थे । आपका समय शास्त्र लेखन में अधिक जाता था । यह बात आपके स्वहस्तोल्लिखित अनेक उपलब्ध ग्रन्थों से ज्ञात होती है । समय दोष से आप में कुछ शिथिलता आ गई थी, परन्तु दोनों समय प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि
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