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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन
ग्रंथ
के लिए अनन्तरागम है क्योंकि सूत्रों का उपदेश उन्हें साक्षात गणधरों से मिलता है। गणधर शिष्यों के बाद में होने वाले आचार्यों के लिए अर्थागम और सूत्रागम दोनों परम्परागम है।
इस विवेचन के आधार पर सहज ही इस निर्णय पर पहुँचा जा सकता है कि जैन आगमों में प्रमाण शास्त्र पर प्रचुर मात्रा में सामग्री बिखरी पड़ी है। जिस प्रकार ज्ञान का विवेचन करने में आगम पीछे नहीं रहे हैं उसी प्रकार प्रमाण की चर्चा में भी पीछे नहीं है। ज्ञान के प्रामाण्य अप्रामाण्य के विषय में आगमों में अच्छी सामग्री है यह ठीक है कि बाद में होने वाले दर्शन के आचार्यों ने इसका जिस ढंग से तर्क के आधार पर विचार किया है- पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के रूप में जिन युक्तियों का आधार लिया है और जैन प्रमाण भाास्त्र की नींव को सुदृढ़ बनाने का सफल प्रयत्न किया है, वैसा प्रयत्न आगमों में नहीं मिलता, किन्तु मूल रूप में यह विशय उनमें अवश्य है।
तर्कयुग में ज्ञान और प्रमाण
उमास्वाति ने ज्ञान और प्रमाण में किसी प्रकार का भेद नहीं रखा। उन्होंने पहले पाँच ज्ञानों के नाम गिनाए और फिर कह दिया कि ये पाँच ज्ञान प्रमाण है। बाद में होने वाले तार्किकों ने इस पद्धति में परिवर्तन कर दिया। उन्होनें प्रमाण की स्वतन्त्ररूप से व्याख्या करना प्रारम्भ कर दिया। उनका लक्ष्य प्रामाण्य अप्रामाण्य की ओर अधिक रहा। मात्र ज्ञानों के नाम गिनाकर और उनको प्रमाण का नाम देकर ही वे सन्तुष्ट न हुए। अपितु प्रमाण का अन्य दार्शनिकों की तरह स्वतंत्र विवेचन किया। उसकी उत्पत्ति और ज्ञप्ति पर भी विशेष भार दिया ज्ञान को प्रमाण मानते हुए भी कौन सा ज्ञान प्रमाण हो सकता है, उसकी विशद चर्चा की। इस चर्चा के बाद में इस निर्णय पर पहुँचे कि ज्ञान और प्रमाण कथंचिद् अभिन्न है ।
माणिक्यनन्दी के अनुसार वही ज्ञान प्रमाण है जो स्व का और अपूर्व अर्थ का निर्णय करता है ज्ञान अपने को भी जानता है और बाह्य अर्थ को भी जानता है ज्ञान ही प्रमाण है क्योंकि इष्ट वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का त्याग ज्ञान के कारण हीं हो सकता है। ग्रहण और त्याग रूप क्रियाएँ ज्ञान के अभाव में नहीं घट सकतीं।
वाविदेवसूरी के अनुसार स्व और पर का निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण है। इन्होंने अपूर्व विशेषण हटा दिया। अपूर्व अर्थ का हो या पूर्व अर्थ का हो कैसा भी ज्ञान हो, यदि वह निश्चयात्मक है तो प्रमाण है ज्ञान ही यह बता सकता है कि क्या अभीप्सित है और क्या अनभीप्सित है अतः वही प्रमाण है।
आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण मीमांस में लिखा कि - "अर्थ का सम्यक् निर्णय प्रमाण है।" यहां पर 'स्व' और 'पर' ऐसा प्रयोग नहीं है। अर्थ का निर्णय स्व निर्णय के अभाव में नहीं हो सकता अतः अर्थ निर्णय का अविनाभावी स्वनिर्णय स्वतः सिद्ध है।
प्रमाण के उपर्युक्त लक्षणों को देखने से यह मालूम होता है कि ज्ञान और प्रमाण में अभेद हैं। ज्ञान का अर्थ सम्यग्ज्ञान है न कि मिथ्याज्ञान ज्ञान जब किसी पदार्थ को ग्रहण करता है तो स्व प्रकाशक होकर ही जैन दर्शन में ज्ञान को स्व पर प्रकाशक माना गया है तथा निश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण माना गया है। निश्चयात्मक का अर्थ है सविकल्पक वही ज्ञान प्रमाण हो सकता है जो निश्चयात्मक हो व्यवसायात्मक हो, निर्णयात्मक हो. सविकल्पक हो।
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