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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
२ पाप और पुण्य
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-हुक्मीचंद एल. बाघरेचा
पाप क्या है ? पुण्य क्या है ?
वास्तव में मानव को अमृत या विष की पहचान ही नहीं, पुण्य का अमृत तथा पाप का विष! पुण्य तथा पाप में हम कितना अंतर समझते हैं ? क्या स्वार्थ के वशीभूत होकर हम कभी-कभी पाप को भी पुण्य नहीं समझते ? क्या दुर्भावना से हम कभी-कभी पुण्य को भी पाप नहीं समझते? आपने और हमने दुखों के कारणभूत पाप को कितना छोड़ा है ? आपने सुखों के कारण पुण्य को कितना समीप से पहचाना है ? इन सभी तथ्यों को उजागर करने के लिए यह जानना आवश्यक है कि पुण्य क्या है और पाप किसे कहते हैं ?
उत्तराध्ययन चूर्णि 2 में कहा है :"पासयति पातयति वा पाप"
अर्थात जो आत्मा को बांधता है या गिराता है वह पाप है।
एक कदम आगे बढ़ने वाले को कोई पीछे फेंक दे, पर्वत पर चढ़ रहा है और सामने से कोई धक्का मार दे, कितना असभ्यता का कार्य दिख रहा है। धक्का मारने वाले को लोग कितना दुष्ट व्यक्ति कहते हैं। बस वैसे ही सूक्ष्म निगोद से निकले हुए आतमराय जो दिनोंदिन ऊपर उठने की, पर्वत पर चढ़ने की, गुणस्थानक क्रमारोहण की प्रक्रिया में लगे हुए हैं, उन्हें कर्मराय के जो सैनिक नीचे नीचे गिराने की प्रक्रिया में संलग्न हैं, उन्हें पाप कर्म की संज्ञा शास्त्रकार महर्षि देते हैं।
पाप एक विष है जो कि आत्मा का ऊर्ध्वगमन करने से रोकता है तथा आत्मा के चारित्रादि स्वभाव की हत्या करता है।
पुण्य की परिभाषा देते हुए ज्ञानी कहते हैं :“पुणाति शुभं करोति इति पुण्यं"
अर्थात आत्मा का जो शुभ करता है, कल्याण में सहयोगी है उसका नाम पुण्य हैं।
पुण्य कर्म का ही भेद है। कहा जाता है कि कर्म आत्मा के लिए बन्धन है आत्मा का भयंकर शत्रु कर्म ही है। कर्म है तब तक मोक्ष हो नहीं सकता। इत्यादि व्याख्याओं को देखते हुए प्रश्न स्वाभाविक उठते हैं कि कर्म दुखदाई है तो उसकी क्या आवश्यकता? शास्त्रकार महर्षि ऐसे प्रश्नों के योग्य उत्तर देकर समाधान करते हैं।
एक व्यक्ति ज्वर से पीड़ित है, कराह रहा है, चिल्ला रहा है जोर शोर से, उस समय डॉक्टर, वैद्यराजजी आदि को बुलाकर रोगी के हाथ पैर पकड़ कर उसके सगे संबंधी इंजेक्शन लगवा रहें हैं। क्या सुई के प्रवेश से दर्द नहीं होता होगा। शरीर में कटु से कटु दवा पिलाते हुए क्या उसे बुरा नहीं लगता होगा? उस समय कोई यह कह दे, क्या कर रहे हो ? यह दर्द से चिल्ला रहा है और उसे सुई का दर्द बढ़ाते हो, तो क्या होगा?
सुई लगवानी, कटु से कटु दवा पिलानी यह किंचित् दुख दाई होने पर भी परिणाम सुखकर होने से उसे दर्द करना नहीं गिना जाता व्यवहार से, वैसे ही कर्म दुख दाता होने पर भी पुण्य कर्म सुई एवं कटु दवा सदृश अंत में सुखकारी होने से कुछ अवस्था तक उपादेय माना गया हैं । किसी स्थान से निश्चित स्थान तक जाने हेतु साधन की आवश्यकता होती है। जैसे रन द्वीप में जाने के लिए व्यक्ति नौका की सहायता लेगा। ठीक वैसे ही संसारी कर्म सहित परतन्त्र आत्मा को कर्म रहित स्वतंत्र होने हेतु सिद्ध गति में जाना है तो उसे संसार रूप समुद्र पार करने हेतु एवं राग द्वेष रूपी महामच्छों के परिवार से सुरक्षित रहने हेतु पुण्य रूपी नौका की आवश्यकता है।
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