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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था आचार्य हिंसा के संदर्भ में चर्चा करते समय रात्रि भोजन के त्याग का भी निर्देश देते हैं। रात्रि भोजन हिंसा के प्रबल कारणों में से एक कारण है। इसलिए हिंसा से विरत होने वाले पुरुषों को रात्रि भोजन का त्याग अनिवार्य रूप से रहता है। प्रश्न उठता है कि रात्रि भोजन से हिंसा क्यों और कैसे होती है? इसका समाधान करते हुए बताया गया है कि हिंसा नाम आत्म परिणामों के विघात का है। यह विघात रागद्वेष रूप कषाय प्रवृत्ति से होता है। इसलिए जिन प्रवृत्तियों के करने से राग की वृद्धि हो, वे सब हिंसाजनक हैं। रात्रि भोजन में अपेक्षाकृत अधिक तीव्र राग है। तीव्र राग के उदय में तीव्र हिंसा का होना अनिवार्य है। अस्तु मन, वचन, काय आदि नव भंगों के साथ रात्रि भोजन त्यागी अहिंसक की कोटि में परिगणित है। हिंसाजनित पापकर्मों से बचने के लिए जैनागम में दो स्थितियां निरूपित हैं। एक स्थिति में महाव्रत धारण कर पूर्ण अहिंसक बना जा सकता है तथा दूसरी स्थिति में देशव्रत या दिव्रत अर्थात मर्यादापूर्वक जीवनयापन कर यथाशक्ति अहिंसा धर्म का पालन किया जा सकता है। बिना प्रयोजन हिंसात्मक अथवा कषायवर्धक कार्य या चिंतन करने पर पाप का संचय होता है। अहिंसक को सर्वथा इससे बचना चाहिए। बिना प्रयोजन हिंसात्मक कार्य हैं - पापोपदेश, पापचर्या, हिंसात्मक उपकरणों का दान, दुःश्रुति तथा द्यूत। इस प्रकार विधिपूर्वक समस्त पंच पापों का परित्याग कर तीनों योगों को वश में रखकर ध्यान पूजन, स्वाध याय, धर्म चर्चा आदि धर्म क्रियाओं में सोलह प्रहर किसी प्रकार के सांसारिक आरम्भ के किये बिना जीवन चर्या को स्थिर करने वाला निश्चय ही पूर्ण अहिंसा धर्म को अंगीकार करता है। ऐसा अहिंसक प्रोषधोयवासी कहलाता है। हिंसा से मुक्त्यर्थ एक विधि यह भी उल्लेखित है कि जो थोड़े भोग से ही सन्तुष्ट होता हुआ बहुभाग भोग तथा उपभोग को छोड़ देता है, वह उनसे होने वाली समस्त हिंसा से बच जाता है। इस रीति से उसके संयधिक अहिंसाव्रत होता है। कारण जितना आरम्भ घटाया जाता है उतनी ही हिंसा से मुक्ति होती जाती है। यह सर्व विदित है कि अहिंसा धर्म में दान की अपनी महत्ता है। इस संदर्भ में आचार्य कहते हैं कि दान की अप्रवृत्ति ही लोभ को जन्म देती है। लोभ हिंसा का ही पर्याय है अर्थात हिंसा रूप ही है क्योंकि लोभ भी आत्मा को मोहित एवं प्रमत्त बनाता है। अस्तु अतिथि को दान देने से अहिंसा धर्म की सिद्धि अथवा हिंसा भाव का परित्याग होता है। जैनागमानुसार किसी भी रूप, किसी भी अवस्था में किया गया घात, अपघात आत्मघात को कभी भी अहिंसा में परिगणित नहीं किया जा सकता। किन्तु सल्लेखना अहिंसा में परिगणित है। इस विषय में आचार्य कहते हैं कि संल्लेखना में कषाय भावों को घटाया जाता है। कषाय भावों का घटाना ही अहिंसा भावों का प्रकट होना है। क्योंकि कषाय ही तो हैं हिंसा के कारण। अतः संल्लेखना अहिंसा भाव को प्रकट करने के लिए ही धारण की जाती है। अहिंसा के माहात्म्य को दर्शाते हुए कहा गया है कि अहिंसा धर्म का पालना एक प्रकार का रसायन है जैसे रसायन का सेवन करने वाला चिरंजीवी बन जाता है उसी प्रकार अहिंसा रूपी रसायन का सेवन करने वाला सदा के लिए अजर अमर हो जाता है। अर्थात अहिंसा धर्म को उत्कृष्ट नीति से पालने वालों को मोक्ष सिद्धि हो जाती है। यथा 'अमृतत्त्व हेतु भूतं परमय हिंसा रसायनं लब्वा। अवलोक्य वालिशानाम समंच समाकुलैन भवितव्यं ।। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि जैनधर्म संस्कृति में अभिव्यक्त हिंसा अहिंसा व्यक्ति के जीवन में एक ओर जहां प्रामाणिकता तथा अप्रमत्तता का संचार करती है वहीं दूसरी ओर यह सोच भी उत्पन्न करती है कि अभीष्ट की प्राप्ति में क्या हेय है और क्या उपादेय है, क्या सार्थक है और क्या निरर्थक ? जीवन कहां हिंसा से गिरा है और कहां अहिंसा से आपूरित है ? वास्तव में हिंसा संसार सागर का निमित्त कारण बनती है। जबकि अहिंसा आत्म वैभव के अभिदर्शन कराती है। मंगलकलश 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़ (उ.प्र.) 202 001. हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 70 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ghtebitorial
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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