SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ३ विश्व धर्म के रूप में जैन धर्म-दर्शन की प्रासंगिकता - राजीव प्रचण्डिया धृञ/धृ धातु से निष्पन्न 'धर्म' आरम्भ से ही विवाद का विषय रहा है। इसका मूलकारण है कि धर्म का चिन्तन-मनन धारण अथवा धरने की अपेक्षा जाति, सम्प्रदाय रूढ़ि, संस्कार तथा अन्धविश्वास आदि के परिप्रेक्ष्य में अधिक हुआ हैं। जब कि वास्तविकता यह है कि धर्म इन सबसे परे मानव जीवन का आधार स्तम्भ है | वह आत्मा की एक शुभ परिणति है। धर्म के द्वारा आत्मा का उत्कृष्ट हित सधता है। आत्मा के यथार्थ स्वरूप अर्थात अनन्त चतुष्ट्य का उद्घाटन होता है। वैदिक तथा श्रमण परम्परा से सम्पृक्त भारतवर्ष अध्यात्म/धर्म प्रधान देश होने के कारण यहां धर्म की सापेक्षगत अनेक व्याख्याएँ अनेक रूपों में व्यवहृत हैं किन्तु जो व्याख्याएँ निरूपित हैं उनमें दो ही व्याख्याएँ मूल हैं एक 'धारणाद्धर्मः' अर्थात जो धारण करता है, उद्धार करता है अथवा जो धारण करने योग्य है वह वस्तुतः धर्म है, दूसरी 'वत्त्थु सहावो धम्मो' अर्थात वस्तु का अपना स्वरूप अथवा स्वभाव ही धर्म है। इन द्वय परम्परा की समस्त व्याख्याएँ इन दो में ही अन्तर्भूत हैं। ये दोनों व्याख्याएँ अपने-अपने ढंग से एक ही बात का निरूपण करती हैं। विचार करें जो स्वभाव है वही तो धारण करने योग्य है और जो स्वभाव से भिन्न विभाव है वह तो धारित नहीं, आरोपित होता है। आरोपण शाश्वत-चिरन्तन नहीं हुआ करते हैं, वे तो कालादि से बंधे होते हैं। आरोपण हटते ही जो है उसकी प्रतीति होने लगती है। वास्तव में धर्म संहारक नहीं अपितु एक उत्कृष्ट मंगल है। प्रस्तुत निबंध में विश्व धर्म के रूप में जैनधर्म दर्शन की प्रासांगिकता' नामक विशद् किन्तु अत्यन्त सामयिक विषय पर चर्चा करना हमारा मूल अभिप्रेत है। किसी वर्ग, जाति संप्रदाय, देश, विदेश अथवा काल विशेष आदि की अपेक्षा जो धर्म प्राणिमात्र के लिए उपयोगी तथा कल्याणकारी होता है वह धर्म वस्तुतः विश्व धर्म कहलाता है। विश्व धर्म संकीर्णता की नहीं विशालता और समग्रता की बात करता है। वह समन्वय तथा एकता की भावना को जन-जन में प्रसारित करता है। यह विश्व धर्म 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का सर्वथा पक्षधर है। ऐसा ही धर्म, जैनधर्म है। जो किसी वर्ग विशेष का ही नहीं अपितु उन सब के लिए है जिनमें जीव तत्व विद्यमान रहता है। जैन धर्म कोरी कल्पनाओं एवं मिथ्या मान्यताओं से सर्वथा मुक्त एक निष्पक्ष, निराग्रही, प्रकृति अनुरूप जीवनोपयोगी, व्यावहारिक तथा विशुद्ध वैज्ञानिक धर्म है। निःसंदेह यह धर्म विश्व धर्म का पर्याय माना जा सकता है। जिन अर्थात मन और इन्द्रियों को जीतने वाला जैनधर्म वस्तुतः प्रकृति जन्य धर्म है। उसका कोई प्रवर्तक और चालक नहीं है, यह किसी व्यक्ति-शक्ति विशेष द्वारा प्रस्थापित भी नहीं है, यह तो रागद्वेष विजेता आत्मज्ञ अर्हतों तथा तीर्थंकरों के अनुभवों का नवनीत है, अस्तु यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। इस धर्म की प्राचीनता के संदर्भ में यह धारणा अत्यंत मिथ्यापूर्ण है कि यह वैदिक धर्मादि की प्रतिक्रिया का प्रतिफलन मात्र है। जबकि वास्तविकता यह है कि यह पूर्णतः एक प्राचीन एवं स्वतंत्र धर्म है। जिसका प्रमाण है वैदिक ग्रंथ 'ऋग्वेद' में इस युग के जैन धर्म के प्रथम उन्नायक तीर्थंकर ऋषभदेव के नाम का एक बार नहीं अनेक बार उल्लेख होना। जैन धर्म प्राणियों पर नियंत्रण करने वाले किसी नियामक शक्ति अर्थात ईश्वर आदि सत्ता को नहीं मानता है। इसके अनुसार समस्त प्राणी स्वयं में पूर्ण और स्वतंत्र हैं। वे किसी अखण्ड सत्ता का अंश रूप नहीं है। प्राणी अपने अपने कर्म करने का और उसका फल भोगने का सर्वथा अधिकारी है। स्वस्थ जीवन साधना तथा आध्यात्मिक उत्थान के लिए जैन धर्म की दृष्टि में सभी समान है। प्राणी अपने कृत कर्मों को नष्ट कर स्वयं परमात्मा बन सकता है। वास्तव में आत्मा ही परमात्मा है। जैनधर्म कहता है कि परमात्मा बनने की शक्ति विश्व के प्रत्येक जीव में विद्यमान है। 'सब्वे जीवा णाणमया' अर्थात विश्व के समस्त प्राणि कुल ज्ञानमय है, सबमें केवल्यज्ञान प्राप्त करने की शक्ति तथा सामर्थ्य विद्यमान है। किसी विशेष व्यक्ति में ऐसी शक्ति - सामर्थ्य हो, ऐसी बात कदापि नहीं है। निःसंदेह कोई भी प्राणी सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र रूपी रत्नत्रय की समन्वित साधना के द्वारा अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है। हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्च ज्योति 71 हेमेन्द न्योति* हेगेन्द ज्योति Private SHEDigitionary WAS
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy