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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ वास्तव में यह धर्म विश्व के प्रत्येक प्राणवंत जीव को परमात्मा बनने का अधिकार प्रदान करता है तथा परमात्मा बनने का मार्ग भी प्रस्तुत करता है किन्तु यहां परमात्मा के पुनः भवावतरण की मान्यता नहीं दी गई है। जैनधर्म की यह मान्यता प्राणियों के नैराश्य तथा असहाय पूर्ण जीवन में आशा आस्था का संचार ही नहीं करती अपितु उनके अंदर पुरुषार्थ तथा आत्म निर्भर की पवित्र भावनाओं को उत्पन्न करती है। जैन धर्म में व्यक्ति विशेष की अपेक्षा मात्र गुणों के चिन्तवन करने का विधि विधान है। इसका आद्य मंत्र ‘णमोकार मंत्र' इसका साक्षी है। जैनधर्म में गुणों के ब्याज से ही व्यक्ति को स्मरण किया जाता है। शरीर तो सवर्था वंदना के अयोग्य है। जैनधर्म के अनुसार राग की प्रचुरता को समाप्त करने के लिए अर्थात कर्म निर्जरा हेतु इन पांच (अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु) का स्मरण-चिन्तवन वस्तुतः पूजा है। यह दो प्रकार से होती है। एक भाव पूजा जिसमें मन से अहंतादि के गुणों का चिन्तवन होता है तथा दूसरी द्रव्यपूजा जिसमें जल, चंदनादि अष्ट द्रव्यों से जो विभिन्न संकल्पों के प्रतीक है, जिनेन्द्र प्रतिमादि द्रव्य के समक्ष जिनेन्द्र के गुणों का चिन्तवन-नमन किया जाता है। वास्तव में भक्तिपूर्वक की गई जिनेन्द्र पूजा से संसारी प्राणी समस्त दुखों से मुक्त होकर इस भव या अगले भव में निश्चयेन सुख समृद्धि का भोग- उपभोग करता हुआ अंततोगत्वा अपने कर्मों की निर्जरा कर मोक्षगामी होता है। जैन धर्म की मान्यता है कि उच्च या निम्न कुल में जन्म लेने से कोई भी मनुष्य छोटा-बड़ा नहीं हुआ करता। जैन धर्म मनुष्य जाति में भेद नहीं मानता। वास्तव में व्यक्ति अपने गुणों से, अपने कर्मों से जाना पहचाना जाता है। संभवतः विश्व के किसी भी धर्म में ऐसी सर्वांगीण तथा समस्पर्शी भावनाएँ दृष्टिगोचर नहीं होती है। अन्य धर्मों की अपेक्षा जैनधर्म में कर्म और कर्म बंधन की प्रणाली तथा कर्म विपाक से मुक्त होने की प्रक्रिया वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित है। विश्व का प्रत्येक प्राणी जैन दर्शन में उल्लिखित कर्म जाल के स्वरूप को यदि समझ लेता है तो निश्चय ही वह संसार चक्र से सदा सदा के लिए मुक्त होकर स्वयंप्रभु बन सकता है। कर्म मुक्ति अर्थात मोक्ष प्राप्यर्थ जैनधर्म का लक्ष्य रहा है, वीतराग विज्ञानता की प्राप्ति। यह वीतरागता सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूपी रत्नत्रय की समन्वित साधना से उपलब्ध होती है। जैनधर्म में रत्नत्रय के विषय में विस्तार से तर्क संगत चर्चा हुई है। वास्तव में 'रत्नत्रय' के प्रकटीकरण पर ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। जैनधर्म आत्मवादी धर्म है। यहां आत्मा के अस्तित्व, उसके स्वरूप, अवस्था आदि पर गहराई के साथ सम्यक् चिन्तन किया गया है। इस धर्म में समस्त द्रव्यों, जो गुणों का पूंजी भूत रूप है, के समूह को विश्व लोक संसार कहा गया है। इसके अनुसार समस्त लोक मात्र छहः द्रव्यों - जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल में ही अंर्तभूत है। इन षडद्रव्यों में जीव द्रव्य को श्रेष्ठ द्रव्य निरूपित किया गया है, इसका मूल कारण है कि अन्य द्रव्यों की अपेक्षा इसमें हित-अहित, हेय, उपादेय, सुख-दुख आदि का ज्ञान रहता है। अर्थात इसमें ज्ञायक शक्ति चेतना सदा विद्यमान रहती है। जैनधर्म के अनुसार सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं का बना हुआ सूक्ष्म-अदृष्य शरीर वस्तुतः कार्माण शरीर कहलाता है। यह कार्माण शरीर आत्मा में व्याप्त रहता है। आत्मा का जो स्वभाव (अनन्त ज्ञान-दर्शन, अनन्त आनन्द शक्ति) है, उस स्वभाव को जब यह सूक्ष्म शरीर विकृत/आच्छदित करता है, तब यह आत्मा सांसारिक/बद्ध हो जाता है अर्थात रागद्वेषादि कषायिक भावनाओं के प्रभाव में आ जात है या यूं कहें कि कर्म बंधन में बंध जाता है। फलस्वरूप जीव (आत्मा) अनादि काल से एक भव (योनि) से दूसरे भव (योनि) में अर्थात अनन्त भवों में इस संसार चक्र में परिभ्रमण करता रहता है। यह निश्चित है कि बंधन/आवरण हटते ही, आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप (सिद्धावास्था) अर्थात् परमात्मा रूप में प्रतिष्ठापित हो जाता है। इस प्रकार जीव स्वयं ही अपने उत्कर्ष - अपकर्ष का उत्तरदायी है। बंधन अर्थात् परतंत्रता और मुक्ति अर्थात् स्वतंत्रता - दोनों ही आत्मा के आश्रित हैं। जैनधर्म में आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमनत्व बताया गया है। वह नीचे से ऊपर उठता जाता है। इसलिए यहां कोई जीव अवतार रूप में या अंशरूप में जन्म नहीं लेता अपितु उत्तार रूप में जन्म लेकर मोह से निर्मोह, मिथ्यात्व से सम्यक्त्व, राग से वीतराग, अर्थात कर्म से निष्कर्म की ओर प्रवृत्त होता हुआ अपने अंतरंग में सुप्त अनन्त शक्ति-गुणों को जागृत करता हुआ परमात्म पद पर प्रतिष्ठित हो जाता है। आत्मा की यह आध्यात्मिक अवस्था उत्कृ ष्टतम अवस्था कहलाती है। हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 72 हेमेन्द्र ज्योति* हेगेन्द्र ज्योति Santedications AAR
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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