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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ 'आप जीयों हजारों साल साल के दिन हो पचास हजार || मेरी जड़ लेखनी गुरुदेव की अनंत गुणावली को शब्दों की सीमा में नहीं बांध सकती । मैं अपने आपको अत्यंत भाग्यशाली समझती हूं कि मुझे वात्सल्य निधि परम श्रद्धेय पू. गुरुदेव की प्रथम शिष्या होने का सुअवसर प्राप्त हुआ है । गुरुदेव की महिमा अपरिमित है । मेरी सीमित बुद्धि इन विशाल गुणों का अंकन करने में असमर्थ है । तो भी भक्ति भावना से निमज्जित होकर मंगल कामना करती हूं कि गुरुदेव आप दीर्घायु हो, अध्यात्म का आलोक प्रदान करके स्व-पर के हित साधक बनें और अपनी संकल्प शक्ति के चमत्कार से विश्व को सत्य का रास्ता दिखाते रहें। उसी मंगल कामना के साथ आपका अभिनंदन । हे शासन सम्राट 'रत्न' कहे शत-शत वंदन हो मेरा भू पर नाम अमर रहे, पूज्य हेमेन्द्र गुरू तेरा || अहिंसा प्राणिमात्र का माता के समान पालन-पोषण करती है, शरीररूपी मरुभूमि में अमृत-सरीता बहती है, दुःखरूपी दावानल को बुझाने में मेघ के समान है और भव-भ्रमणरूपी महारोगों के नाश करने में रामबाण औषधि के समान काम करती है। इसी प्रकार सुखमय दीर्घायु, आरोग्यता, सौंदर्यता और मनोवांछित वस्तुओं को प्रदान करती है। इसलिये अहिंसा-धम का सर्व प्रकार से पालन करना चाहिये; तभी देश, र्धम, समाज और आत्मा का वास्तविक उत्थान होगा। विषयभोग कर्मबन्ध के हेतु और विविध यातनाओं की प्राप्ति कराने के हेतु और विविध यातनाओं की प्राप्ति कराने के कारण है। विषयार्थी प्राणी प्रतिदिन मेरी माता, पिता, पुत्र, प्रपौत्र, भाई, मित्र, स्वजन, सम्बंधी, जायदाद, वस्त्रालंकार और खान-पान आदि सांसारिक सामग्री की खोज में ही अपना अमूल्य जीवन यों ही बिताते रहते हैं और सब को छोड़कर केवल पाप का बोझा उठाते हुए मरण के शिकार बन जाते हैं, पर अपना कल्याण कुछ नहीं कर सकते। विषयाभिलाषी मनुष्य अपने कुटुम्बियों के निमित्त क्षुधा, तृषा सहन करता हुआ धनोपार्जनार्थ अनेक जंगलों, सम-विषम स्थानों, नदी, नालों और पर्वतीय प्रदेशों में इधर-उधर दौड़ लगाता रहता है और यथाभाग्य धन लाकर कुटुम्बियों का यह जान कर पोषण करता है कि ये समय पर मेरे दुःख में सहयोग देंगे-भागीदार बनेंगे। यों करते-करते मनुष्य जब वृद्धावस्था से घिर जाता है, तब कुटुम्बी न कोई सहयोग देते हैं और न उसके दुःख में भागीदार बनते हैं। प्रत्युत सोचते हैं कि यह कब मरे और इससे छुटकारा मिले। बस, यह है रिश्तेदारों का स्त्रार्थमूलक प्रेमभाव; अतः इनके प्रपंचों को छोड़ कर जो धर्मसाधन करेगा वह सुखी होगा। श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति 61 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति on
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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