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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
बहते हुए नहीं देख सकता। युद्ध में देश की सर्वश्रेष्ठ शक्ति का विनाश होता है। हजारों माताएं विधवा हो जाती हैं और हजारों पुत्रविहीन। राज्य पर पाण्डवों का अधिकार है किन्तु मैं उन्हें यह समझा दूंगा कि आप केवल पांच गांव ले लें। नरसंहार को टालने के लिए उस नरवीर ने अपनी झोली फैला दी, पर दुर्योधन के “सूच्यग्रं नैव दास्यामि, बिना युद्धेन कैशव। बिना युद्ध के हे केशव! एक सूई की अणि पर जितनी जमीन आए उतनी भी मैं नही दूंगाइसी स्वार्थपूर्ण निर्णय के कारण महाभारत का युद्ध हुआ। यह निग्रहरूप अहिंसा के फलस्वरूप कृष्ण अहिंसा के देव के रूप में प्रतिष्ठित हुए तो दुर्योधन हिंसक दानव के रूप में।
सारांश यह है कि निग्रहरूप अहिंसा में हिंसा की प्रमुखता नहीं अपितु अहिंसा को ही प्रमुखता है। निग्रहरूप अहिंसा में अत्याचार को रोकने का संकल्प होता है। उसमें स्वार्थबुद्धि नहीं होती है। उसमें परमार्थ की भव्य भावना होती है। इसलिए बाह्यरूप से हिंसा दिखने पर भी अहिंसा ही है।
अहिंसा पर विविध दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। हिंसा के चार प्रकार भी आगम साहित्य में प्रतिपादित हैं। वे हैं
1. संकल्पी हिंसा - जानबूझकर संकल्प करके मारना। 2. आरम्भी हिंसा - चौके चूल्हे आदि गृहकार्य में होने वाली हिंसा। 3. उद्योगी हिंसा - खेती, व्यापार, उद्योग आदि में होने वाली हिंसा।
4. विरोधी हिंसा - शत्रु के आक्रमण करने पर अन्याय के प्रतिकार तथा जीवन रक्षा के लिए युद्ध अथवा संघर्ष
करने से होने वाली हिंसा।
इन चार प्रकार की हिंसाओं में श्रावक संकल्पी हिंसा का पूर्णरूप से त्याग करता है। शेष हिंसाओं के सम्बन्ध में भी वह विवेकयुक्त प्रवृत्ति करता है। जिससे कम से कम हिंसा हो।
अहिंसा धर्म और दर्शन की आधारशीला है। धर्म और दर्शन का भव्य प्रासाद अहिंसा पर ही अवलम्बित है। बहुत ही संक्षेप में हमने अहिंसा के स्वरूप का कथन किया है।
कुछ चिन्तकों का यह मन्तव्य है कि अहिंसा की महत्ता के संबंध में हमारे आदरणीय महापुरुषों ने बहुत ही विस्तार से प्रकाश डाला है। अहिंसा अपने आप में अच्छी चीज है, अहिंसा के सिद्धान्त भी सर्वप्रिय है पर अहिंसा की परिभाषाएँ और व्याख्याएँ इतनी जटित और दुरूह हो गई है कि आज उसका पालन करना अव्यवहार्य है। अहिंसा बहुत अच्छी वस्तु है पर आज वह जीवन में अपनाने योग्य नहीं रह पायी है। यदि हम अहिंसा का पालन करें तो हमारा जीवन ठीक रूप से नहीं चल सकता। हमें उन चिन्तकों के प्रश्नों पर चिन्तन करना है कि क्या सचमुच ही अहिंसा का पालन नही हो सकता? जो अहिंसा शताब्दियों से व्यवहार में आती रही, जिस अहिंसा को श्रमण भ. महावीर ने, तथागत बुद्ध ने और राष्ट्रपिता माहात्मा गाँधी ने अपनाया, क्या वह अहिंसा अब आचरण योग्य नहीं रही? यह शंका ठीक नहीं है। हजारों साधक आज भी अहिंसा के पथ पर चल रहे हैं। उनके जीवन के कण-कण में अहिंसा भगवती का निवास है। वे स्वयं धडल्ले के साथ अहिंसा का पालन करते हैं। उनका हर आचरण अहिंसा से ओतप्रोत है। ऐसी स्थिति में यह कहना कि आधुनिक युग में अहिंसा का पालन नहीं हो सकता यह अनुचित है। हाँ, इतना अवश्य है कि अहिंसा के पथ पर वही व्यक्ति चल सकता है जो वीर है और जिसके मन में अहिंसा के प्रति निष्ठा है।
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