________________
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
सेठ अव्यवहारिक अभिमानी था, अपने आगे किसी को कुछ समझता नहीं था तथा लालची था । दुःखी मनुष्य को उसने डाट कर भगा दिया ।
इस तरह वह नगर के सभी धनी लोगों के पास गया, पर उसकी दयानीय दशा देखकर किसी सेठ ने उससे बात तक नहीं की । अन्त में किसी दयालु व्यक्ति ने उस दुःखी मनुष्य को रामलाल का मकान बता कर कहा वह व्यक्ति तुम्हें सुख का कोई मंत्र बता देगा ।
रामलाल गरीब अवश्य था, किन्तु तत्वचिन्तक, विचारशील तथा निर्णायक बुद्धि का धनी होने के साथ वह व्यवहार कुशल भी था । अपने मान्य धर्म पर उसे अटूट विश्वास था | धर्म ही उसका सबसे बड़ा मददगार था ।
जब दुःखी मनुष्य उसके पास गया तो उसने उसकी बात धैर्य के साथ सुनी । उसे फिर चटाई पर बिठाया तथा एक गिलास शीतल जल पिलाया । जिससे आगन्तुक की शांति मिली । पश्चात् रामलाल ने कहा - "बन्धु ! मेरे पास सुख का कोई मंत्र नहीं है । परन्तु आगन्तुक किसी तरह मानने को तैयार नहीं था । कहने लगा - नगर निवासी आपका ही कहते हैं । इसलिये मैं सुख का मंत्र लिये बिना यहाँ से नहीं जाऊँगा ।" रामलाल ने उससे कहा - "तुम किसी सुखी मनुष्य का कमीज ले आओ, फिर मैं तुम्हें सुख का मंत्र दे दूंगा ।"
आगन्तुक ने कहा – “जी, यह हुई न बात । एक कमीज ही तो लाना है? मैं कई सुखियों के कमीज ला सकता हूँ । अच्छा नमस्ते ।।
दुःखी मनुष्य देश के सबसे बड़े शहर में गया और वहाँ एक विशाल भवन, उसके नीचे लम्बी-चौड़ी हीरे-जवाहरात दुकान, वहाँ सैकड़ों ग्राहक बैठे थे । उसने जाकर सेठ को आवाज लगाई । सेठ बोला-कौन? " मैं हूँ एक दुःखी मनुष्य। मुझे फला नगर के निवासी सेठ रामलाल ने आपका एक कमीज लेने के लिये भेजा है ।" सेठ ने कहा - "किसलिये? मेरा कमीज क्यों चाहते हो?" वह बोला – रामलालजी ने कहा है कि तुम किसी सुखी मनुष्य का कमीज ले आओ तो मैं तुम्हें सुख का मंत्र दे दूंगा ।"
सेठ बोला - "भाई ! कमीज तो भले ही तुम एक के बदले दो ले जाओ, परन्तु मैं सुखी नहीं हूँ।"
आगन्तुक ने कहा - "भाई! क्यों मेरी हंसी उड़ाते हो? आपके पास इतना बड़ा भवन है चार-चार कारें हैं। नौकर चाकर हैं, फिर भी आप कहते हैं कि मैं सुखी नहीं हूँ, मैं मान नहीं सकता ।"
सेठ - "अच्छा ! तुम चार दिन मेरे यहाँ रहकर देख लो कि मैं दुखी हूँ कि सुखी हूँ ।”
आगन्तुक ने रहना स्वीकार कर लिया । सेठ ने अपने नौकर से कहकर अपने विशेष शयन कक्ष के पास ही अतिथि गृह में आगन्तुक के रहने और खाने-पीने का प्रबन्ध करा दिया । दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही सेठ की अपने पुत्र के साथ बोला चाली हो रही थी । लड़का कह रहा था - "मेरी भी अपनी इच्छाएं हैं । मैं भी उस दुनिया में आया हूँ, तो जगत् का आनन्द लूट लूं । आप मुझे किसी भी बात से रोक नहीं सकते ।"
सेठ कह रहा था - "परन्तु तू मेरी भी कुछ माना कर । मेरे नाम पर कालिख भी मत पुतवा । यदि इस पर भी तू नहीं मानता तो मेरे घर से निकल जा ।"
लड़का कहने लगा - " मैं आपका दास नहीं हूँ। मैं हर जगह जाने के लिये स्वतंत्र हूँ । आप जैसे कंजूस और क्रोधी पिता के पास रहना मुझे बिलकुल पसन्द नहीं है ।"
पिता ने कहा - "नालायक ! कमीने । निकल जा, अभी का अभी ।"
इस प्रकार पिता-पुत्र का कलह सुनकर आगन्तुक ने विचार किया मैं तो समझता था यह सेठ बड़ा सुखी है परन्तु यह तो मुझसे भी ज्यादा दुःखी है । मेरा पुत्र कम से कम मेरी आज्ञा का तो पालन करता है । उसने सेठ से कहा – “नमस्ते सेठजी! मैं जा रहा हूँ । वास्तव में आप सुखी नहीं है, यह मैंने देख लिया ।
हेमेन्द्रज्योति * हेमेन्द्र ज्योति 52 हेलेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति
R
EMEDY
p
aluse only
areltool