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________________ श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ सेठ से विदा लेकर वह एक बड़े जमींदार के यहां पहुंचा और उनसे अपना कमीज देने को कहा । जमींदार ने पूछा तो उसने कारण बता दिया। जमीदार ने भी कहा - "तुम मुझे सुखी मानते हो, पर मैं सुखी नहीं हूँ ।" आगन्तुक ने कहा ने कहा - "वाह ! आपके यहाँ रईसी ठाटवाट है, फिर भी आप कहते हैं कि मैं सुखी नहीं हूँ, मैं मान नहीं सकता " जमीदार ने भी उसे कुछ दिन रहकर देखने को कहा। तीसरे ही दिन जमीदार का उसकी पत्नी के साथ झगड़ा देखा तो आगन्तुक दंग रह गया। वह मन ही मन सोचने लगा-"इस जमीदार से तो मैं अधिक सुखी हूँ।” जमीदार के यहाँ से चलकर एक बड़े दुकानदार के यहाँ पहुँचा उसने वहाँ ग्राहकों की भीड़ लगी देखी । जब सभी ग्राहक सामान लेकर चले गये तो उसने दुकानदार से नमस्ते करके अपना कमीज देने के लिये कहा । दुकानदार बोला - "भाई! तुम मुझे जैसा सुखी समझते हो, वैसा मैं सुखी नहीं हूँ ।" आगन्तुक कहा "आपको क्या दुःख है इतना धन बरस रहा है फिर भी आपको दुःख " दुकानदार बोला - "भाई ! इतना सब होते हुए भी मुझे तो सुख से भोजन करने का भी समय नहीं मिलता । ग्राहकों की इतनी भीड़ रहती है कि न तो मैं समय पर खा-पी सकता हूँ, न सो सकता हूँ न ही अपने परिवार से सुख-दुःख की बातकर सकता हूँ मनोरंजन के लिये भी मुझे समय नहीं मिल पाता। फिर मैं अपने आपको कैसे सुखी मानूँ?" | दुकानदार के यहाँ से चलकर वह छोटे व्यापारी, किसान, श्रमिक, ग्रामीण, नागरिक आदि कई प्रकार के लोगों के पास पहुँचा, परन्तु कोई भी सुखी मनुष्य उसे नहीं मिला । तात्पर्य यह है कि उस दुःखी को बहुत घूमने पर भी कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिल जो स्वयं को सुखी कहता हो । अन्त में वह रामलाल के पास पहुँचा और कहने लगा - "बहुत भटकने पर भी मुझे कोई सुखी नहीं मिला । अतः आप ही सुख का कोई मंत्र देना चाहते हों तो दे दीजिये ।" रामलाल ने उसे समझाया - "जब तक तुम्हारे मन में इस जड़ शरीर और शरीर से सम्बन्धित स्वजन आदि के प्रति ममत्व और मोह रहेगा तब तक तुमसे सुख और शांति कोसों दूर रहेगी ।" यह सुनकर दुःखी मनुष्य सुख के इस मूल मंत्र को पाकर प्रसन्नता से चल दिया । 3 दौलत का सदुपयोग किसी नगर के सेठ के यहां शान्तिलाल नामक एक लोभी प्रकृति का व्यक्ति नौकर था। शासकीय सेवा से अधिक मात्रा में धन उपार्जित करने के बाद भी उसकी धन कमाने की इच्छा अथवा धन से मोह कम नहीं हुआ । वह धन जोड़-जोड़कर रखता जाता, और साधारण भोजन करके जीवन व्यतीत करता था । दौलत के लालची शान्तिलाल ने एक दिन अपनी पत्नी पार्वती से कहा- "तुम बाजार में जाओ और दीन एवं करुण स्वर में पुकार कर कहो "मेरे पति को सेठ ने बन्दी गृह में बन्द करवा दिया है।" ऐसा करने से जनता तुम्हारे प्रति सहानुभूति बताएगी, तुम्हें रोटी कपड़े की सहायता कर देंगे और करवा भी देंगे। मैं रात्रि को घर आ जाया करूँगा ।" पार्वती ने इस उपाय से धन बटोरना प्रारंभ कर दिया । धन बढ़ने के साथ-साथ शान्तिलाल में कंजूसी भी बढ़ती गई। वह अपनी संग्रहवृत्ति की इच्छा को पूरी करने के लिये सेठ के मकान से प्रतिदिन एक सोने का सिक्का चुरा कर लाने लगा। एक दिन शान्तिलाल से उसकी पत्नी ने पूछा “इतने सिक्कों का क्या करोगे?" शान्तिलाल ने कहा - "हम इन सिक्कों को तुड़वाकर माला बनवा लेंगे और नगर से बहुत दूर चले जायेंगे। फिर शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करेंगे।" परन्तु एक दिन नौकर शांतिलाल को चोरी करते हुये रंगे हाथों पकड़ लिया । उसे बन्दी बना कर न्यायालय में न्यायाधीश के सामने उपस्थित किया गया । न्यायाधीश ने निर्णय सुनाते हुए कहा "शांतिलाल बाजार में हेमेन्द्र ज्योति के ज्योति 53 हेमेन्द्र ज्योति हेमेन्द्र ज्योति
SR No.012063
Book TitleHemendra Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLekhendrashekharvijay, Tejsinh Gaud
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2006
Total Pages688
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size155 MB
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