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वर्षावास काल समाप्त हुआ और प. पू. राष्ट्रसंत श्री आदि मुनिमण्डल का राजगढ़ से विहार हो गया । मैं अभिनन्दन ग्रन्थ के लिये आवश्यक स्तरीय सामग्री जुटाने के कार्य में लगा रहा। अब तक मेरे पास देश के सुविख्यात विद्वानों की ओर से काफी सामग्री आ चुकी थी । यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा कि इस सम्बन्ध में विद्वत जगत की ओर से उत्साहवर्धक सहयोग प्राप्त हुआ और कुछ वरिष्ठ विद्वानों ने तो अपनी व्यस्तता के बावजूद मेरे अनुरोध को स्वीकार कर समय सीमा के अन्दर अपने महत्वपूर्ण आलेख प्रेषित किये ।
प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ के खण्ड चार एवं पांच के अनुकूल अपेक्षित सामग्री प्राप्त हो चुकी थी किंतु अभी भी काफी सामग्री का संकलन/लेखन करना था । सबसे जरुरी कार्य था परम पूज्य राष्ट्रसंतश्री की जीवनी का लेखन । इसके लिये पू. मुनिराज श्री प्रीतेशचन्द्रविजयजी म.सा. से ही आग्रह किया । जीवनी की रूपरेखा को भी विचार विमर्श के उपरांत अंतिम रूप दे दिया गया । जीवनी लेखन का कार्य प्रारम्भ भी हो गया किंतु अपने व्यस्त कार्यक्रम के कारण जीवनी लेखन का कार्य पूर्ण नहीं हो सका और श्री मोहनखेडा तीर्थ से प.पू. राष्ट्रसंतश्री का विहार हो गया ।
इधर मार्च 1999 के प्रथम सप्ताह में पूज्य मुनिराज श्री लेखेन्द्रशेखरविजयजी म.सा. अपने शिष्य परिवार सहित उज्जैन पधारे । आप प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रधान सम्पादक हैं । मैं प्राप्त सामग्री लेकर आपकी सेवामें पहुंचा। पू. कोंकण केसरीजी म.सा. ने मनोयोग पूर्वक प्राप्त सामग्री का अवलोकन किया और कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिये तथा कुछ और विषयों पर लेखों की आवश्यकता प्रतिपादित की । उनके अमूल्य सुझावों को स्वीकार करते हुए मैंने बताये विषयों पर लेख प्राप्त करने के लिये विशेषज्ञ विद्वानों से सम्पर्क कर आलेख प्राप्त किये। इतना सब होने पर ऐसा लग रहा था कि अब ग्रन्थ की सामग्री को मुद्रणार्थ दिया जाना सम्भव हो सकेगा किंतु उसी बीच प. पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि श्रीजी म.सा. आदि के वर्षावास की घोषणा राणीबेन्नूर जिला हावेरी (कर्नाटक) के लिये हो गई। इसलिये प. पू. आचार्य श्रीजी का विहार कर्नाटक की ओर हो गया । इस प्रकार दक्षिण भारत की धरा पर आपका वर्षावास होने से अभिनन्दन ग्रन्थ का कार्य भी प्रभावित हुआ । मैं अपने स्वास्थ्य के कारण राणीबेन्नूर नहीं जा सका । इस कारण अभिनन्दन ग्रन्थ का कार्य अवरूद्ध रहा । राणीबेन्नूर वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् कार्य में पुनः तीव्रता आई ।
प. पू. आचार्य श्रीजी ने सं. 2057 के वर्षावास के लिये चेन्नई श्रीसंघ को स्वीकृति प्रदान कर दी और कर्नाटक तथा मार्गवर्ती ग्राम-नगरों के धार्मिक कार्य सम्पन्न कर आपने
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