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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
धर्मात्मक सत' अर्थात वस्तु अनेक धर्मात्मक है। अर्थात विश्व की प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण व विशेषताओं को धारण करती है। जब किसी वस्तु के विषय में कुछ भी कहा जाता है तो साधारणतः उसके एक धर्म (गुण) को प्रमुख तथा उसके अन्य धर्मों (गुणों) को गौण कर दिया जाता है क्योंकि शब्द का उच्चारण होते ही अपेक्षित गुण ग्रहण कर लिया जाता है। पदार्थ में विद्यमान अनेक गुणों में से केवल एकादि गुणों को ही देख – समझकर जब यह निर्णय कर लिया जाता है कि यह पदार्थ पूर्ण है, इसका स्वरूप अन्य प्रकार का हो ही नहीं सकता, इसमें अन्य गुण विद्यमान हैं ही नहीं, तब एकान्तिक दृष्टि जन्म लेती है जिससे हठाग्रह उत्पन्न होता है। हठाग्रह/पूर्वाग्रह से तमाम मतभेद, संघर्ष उत्पन्न हो जाते हैं जबकि अनेकान्तिक दृष्टि जीवन जीने का सुंदर मार्ग प्रस्तुत करती है। अनेकांतवाद/स्याद्वाद को लोगों ने प्रायः गलत समझा है। वास्तविकता यह है कि यह न संशयवाद है और न ही संदेहवाद अथवा अनिश्चितवाद अपितु यह यथार्थवाद से अनुप्राणित है। अनेकांतवादी जो कुछ कहता है वह किसी अपेक्षा से, किसी दृष्टि से कहता है क्योंकि एक ही समय में, एक ही क्षण में, एक ही वस्तु के विषय में सारे गुणों को व्यक्त करना एक व्यक्ति के द्वारा नितांत असंभव है। स्याद्वाद/अनेकांतवाद केवल दर्शन के क्षेत्र में ही नहीं अपितु व्यावहारिक क्षेत्र में भी समन्वय की स्थापना करता है। इसके द्वारा विश्व की प्रत्येक समस्या का सही समाधान हो सकता है। सामाजिक मतभेद दूर हो सकते हैं। निश्चयेन जैन दर्शन का यह अनेकांतवाद/ स्याद्वाद समाज में, राष्ट्र, अंतर्राष्ट्र में समन्वय, स्नेह, सद्भावना तथा सहिष्णुता जैसे उदात्त गुणों को उत्पन्न कर जीवन दर्शन को एक नया आयाम दे सकता है।
जैनधर्म मानव समाज को अधिकाधिक सुखी बनाने हेतु अपरिग्रह पर बल देता है। पर-पदार्थ का उपयोग परिग्रह और अपरिग्रह नामक वृत्ति-व्यवहार पर निर्भर करता है। अपरिग्रह का अर्थ है कि प्रत्येक पदार्थ के प्रति आसक्ति का न होना। वस्तुतः ममत्व या मूर्छा भाव से संग्रह करना परिग्रह कहलाता है। आसक्ति के कारण ही मनुष्य अधिकाधिक संग्रह करता है। परिग्रह को व्यक्ति सुख का साधन समझता है और उसमें आसक्त वह सदा दुखी रहता है। जबकि कामना रहित व्यक्ति ही सदा सुखी रह सकता है क्योंकि मानव की इच्छाएँ आकाश के सदृश असीम है और पदार्थ ससीम। यह सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि एक इच्छा की पूर्ति से पूर्व ही अनेक नवीन इच्छाओं का प्रादुर्भाव हो जाता है। यह सत्य है कि वैज्ञानिक विकास में विविधमुखी सुसंपन्नताएं अवश्य जुटाई गई हैं, उनसे क्षणिक सुखानुभूति भी होती है पर उनसे जीवन में स्थाई सुख शांति की पूर्ति प्रायः नहीं हो पाती। वास्तव में जिसे आज सुख समझा जाता है वह तो सुख नहीं मात्र सुखाभास है। जिस सुख से चित्त अशांत रहता है वह भला सुख कैसे हो सकता है। पाश्चात्य देशों का सामाजिक जीवन अशांत और असंतोषमय है। ठीक यही स्थिति आज हमारे देश के निवासियों की होती जा रही है। वे योग से हटकर भोग की दिशा में भटक रहे हैं। अननुकूल परिस्थितियों में वे असंगत, प्रत्यावर्तन के साथ अर्थ का अनर्थ कर डालते हैं। भोग में तृप्ति नहीं, वृत्ति है, विकास है कामना का। जितने भोगवासनाओं के उपकरण और सुविधाएँ जुटाई जाएंगी अतृप्ति उतनी ही अधिक उद्दीप्त होगी। जैन धर्म का अपरिग्रहवाद प्रत्येक मनुष्य में स्थाई तृप्ति तथा सुख शांति ला सकता है। स्पष्ट है कि मन और इंद्रियों को संयत किये बिना और लालसाओं को काबू में किये बिना न व्यक्ति के जीवन में तुष्टि आ सकती है और न समाज, राष्ट्र या विश्व में ही शांति स्थापित हो सकती है। अतएव जैसे आध्यात्मिक उन्नति के लिए संयम की आवश्यकता है उसी प्रकार लौकिक समस्याओं को सुलझाने के लिए भी वह अनिवार्य है अन्यथा एक दूसरे को हड़पने की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहेगी। जिससे भय, अशांति और संघर्ष नये नये रूपों में जन्म लेकर विकसित होते जायेंगें। निश्चयेन जैन धर्म का अपरिग्रहवाद आधुनिक युग की अर्थ वैषम्य जनित सामाजिक समस्याओं का सुंदर समाधान है।
सात्विक जीवन निर्वाह हेतु विश्व के प्रत्येक मानव को प्रेरित करना जैनधर्म का मुख्य लक्ष्य रहा है। जैन धर्म मानव शरीर को जल संबंधी समस्त दोषों से मुक्त और शरीर को स्वस्थ तथा निरोग रखने की दृष्टि से शुद्ध, ताजे छने हुए और यथा संभव उबालकर ठंडा किये हुए जल के सेवन करने का निर्देश देता है। भोजन के संबंध में जैन धर्म का दृष्टिकोण अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा वैज्ञानिक है। इसके अनुसार मानव जीवन एवं मानव शरीर
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