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आत्मा अनश्वर है । आत्मा अजर-अमर है । आत्मा निष्प्रभावी है, उस पर जरा-मरण का कोई प्रभाव नहीं । मैं की अनुभूति इस नश्वर शरीर के लिये तो कदापि नहीं है । 'मैं शरीर नहीं चैतन्य स्वरूप, अनंतज्ञान दर्शन सुख का भोक्ता-आत्मा हूं । मेरा लक्ष्य परम श्रेष्ठ है । इस लक्ष्य से इतर कोई लक्ष्य नहीं । संसार शब्द का निर्माण 'सृ' धातु से हुआ है जिसका तात्पर्य है 'संसरण'। मैं आत्मा के रूप में सांसारिक व्यामोहों से भ्रमित होकर संसरण कर रहा हूं । मेरा परिभ्रमण और परिवर्तन मुझे अपने लक्ष्य से दूर भटका रहा है। जीव योनियों के असीम अंतरिक्ष में बार-बार चक्कर लगाते हुए मैं दूर, और दूर होता जा रहा हूं किंतु ऐसा करना मेरे लिये विनाश का सूचक है । मैं आत्मा हूं।'
आत्मा-विकृति का कारण भौतिक सुख-सुविधाओं की आसक्ति है । भौतिक सुख-सुविधा से संपन्न होने के लिए नीतिगत अनीतिगत सभी कार्य करने में मनुष्य लगा रहता है । कर्म का उदय फल देते हैं तथा फल भोक्ता आत्मा के लिये नये-नये कर्मो का उपार्जन करते हैं । कर्म का फल एवं फल के भोग में आत्मा के पुरुषार्थी समर्थन के कारण नूतन कार्मण वर्गणा के पुद्गलों का प्रवेश जीवन पर कर्म का प्रत्यक्ष प्रभाव साफ-साफ दिखाई देता हैं । जितनी भी स्थितियाँ परिस्थितियाँ निर्मित होती वह कर्मफल के कारण है । आत्मा तथा कर्म के आपसी संबंधों के कारण यह विश्व संचलित हो रहा है । पुण्य कर्मों से व्यक्ति को सुख-समृद्धि मिलती है तो पापकर्मों के कारण दुःख, दरिद्रता, दुर्बलता आती है । जैन दर्शन का कर्मवाद अन्य कर्म सिद्धांतों से आंशिक रूप से सहमत होता है किंतु जिस गहराई, जिस अन्वेषण की तृष्णा को तप्त करता है, वह असाधारण है । भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति रूचि को कम करते हुए समाप्त करना आत्म विकास का सोपान है । इस पर आरूढ़ होते हुए क्रमशः पुद्गलों से अनासक्त बनना आत्मा के लिये अभीष्ट है । आत्मा उपादेय है, पुद्गल ज्ञेय है । पुद्गल का ज्ञान आत्मा के बचाव के लिये अनुरूप स्थिति निर्मित करता है ।
मानव संस्कृति के विशद् अध्ययन में महत्वपूर्ण स्वर्ण चिह्न के रूप में जैन संस्कृति है । जैन धर्म तो हैं ही, धर्म के रूप में उसका चिंतन, दर्शन, अध्यात्म एवं तत्वज्ञान भी परिमार्जित है लेकिन जैन संस्कृति ने एक स्वतंत्र संस्कृति का आकर लिया है ।
जैन संस्कृति ढोंग और पाखंड से मुक्त है । जैन संस्कृति तो स्वस्थ चिंतनयुक्त संस्कृति है। यह संस्कृति तो सामाजिक न्याय व आर्थिक एकरूपता के कारण समाजवादी समाज की संरचना की पक्षधर है । इस संस्कृति में तप का तेज, त्याग की तीव्रता एवं स्वावलंबन का संकल्प शिक्षा के रूप में मानव के समक्ष प्रस्तुत किया । इस संस्कृति की यह विशिष्ट देन है कि इतनी हिंसा होने के बावजूद अहिंसा के मूलभूत तत्व अक्षुण्ण रहे । वर्तमान जैन संस्कृति के पुरस्कर्ता तीर्थंकर महावीर है । अहिंसा के दृष्टिबोध ने प्राणिमात्र तक के प्रति सहिष्णु होने का भाव प्रस्थापित किया है, स्याद्वाद के चिंतन ने तथ्यान्वेषण की गहराई तक पैठ की है । उसके ये दोनों सूत्र विश्व व्यापी है । तीसरे सूत्र अपरिग्रह की आवश्यकता तो काल के प्रवाह के साथ-साथ निरंतर बढ़ती जा रही है । जैन संस्कृति निरंतर चिंतनशील रही और इसी कारण विचारों में संशोधन हुआ है ।
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