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श्री
राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
सत्तरी अर्थात् चरण की पुष्टि करने योग्य 70 बोल अनुसार परिणामों को शुद्ध रखना व जिस अवसर पर जो करने योग्य हो, सो करते हैं । आप आगमों के मर्म के ज्ञाता और व्याख्याता होते हैं । 4. चरण सत्तरी के 70 बोल है पांच महाव्रत, दस यति धर्म सतरह भेदे संयम, दस प्रकार की वैयावृत्य, नव प्रकार का ब्रह्मचर्य पालन, ज्ञानादि रत्नत्रय, बारह प्रकार का तप व चार कषाय निग्रह इन सबके पालक व आराधक होते हैं। 5. करणसत्तरी के 70 बोल हैं - आहार, वस्त्र, पात्र शैया, ऐसी चार पिण्ड विशुद्धि, पांच समिति, तीन गुप्ति, बारह भावनाएं, बारह प्रतिमाएं, पांच इन्द्रियां निग्रह पच्चीस प्रति लेखना चार अभिग्रह धारण करना" ।
पंचम पद णमो लोए सव्व साहूणं
"दंसण णाण समग्गं मोक्खस्स जो ह चरितं । साधयहि णिच्च सुद्रं साहू समुणी णमोतस्स I
अर्थात् जो दर्शन एवं ज्ञान से समग्र मोक्ष मार्ग स्वरूप एवं नित्य शुद्ध चारित्र की साधना करते हैं, जो बाह्य व्यापारों से मुक्त हैं, जो दर्शन, ज्ञान चारित्र और तप रूप चार आराधनाओं में सदा लीन रहते हैं जो परिग्रह रहित और निर्मोही है, वे साधु कहलाते हैं। साधु के 27 गुण कहे हैं जो इस प्रकार है।
“पंच महव्वय जुत्तो, पंचेदिय संवरण । चडविह कसाय मुक्को, तओ समाधारणीया ||1||
तिसच्च सम्पन्न तिओ, खंति संवेग रओ । वेजय मच्चु भय गयं, साहु गुण सत्तावीसं 121
अर्थात् (1-5) पांच महाव्रतों का पालन, (6-10) पांच इन्द्रियों का संवर, (विषयों से निवृत्ति) (11-14) चार कषायों से निवृत्ति, (15-17) मन, वचन व काया समाधारणीया (18–20) भाव, करण व योग सच्चे (21-23) ज्ञान दर्शन व चारित्र सम्पन्न (24) क्षमावंत 25, वैराग्यवंत (26-27) वेदनीय मरणांतक समाहिया ऐसे सत्तावीस गुण सम्पन्न साधु होते हैं।
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विशेष 1. दिगम्बर परम्परानुसार साधु के 28 गुण कहे हैं" यथा 15 पांच महाव्रत, 6-10 पांच समिति का पालन, 11-15 पांच इन्द्रिय विगयी 16 सामायिक 17 वंदन 18 स्तुति 19 स्वाध्याय, 20 प्रतिक्रमण, 21. कायोत्सर्ग, 22. शयन एक करवट से (अर्ध रात्रि के बाद) 23. अदन्त मंजन, 24. अस्ताव 25. नग्नत्व 26. एग मत्तं 27. खड़े रह भोजन करना और 28 केश लोच करना ।
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आगम बलिया समय निग्गंथा" अनुसार साधु का बल आत्म ज्ञान होता है तथा सुत्ता अमुणी मुणिजो सया जागरंति अनुसार मुनि सदा मोहरूपी भाव निद्रा से जाग्रत रहते हैं । जब आत्मा सोता है तो इन्द्रियां जाग्रत रहती है और जब आत्मा जाग्रत रहता है तो इन्द्रियां सो जाती है अर्थात् निष्क्रिय हो जाती है
। ऐसे अप्रमत्त मुनि होते
हैं उनके लिए कहा गया है
“पर परिणाम त्यागी, तत्व की संभार करे ।
हरे भ्रम भाव, ज्ञान गुण के धरैया है || लखे आपा आप माहि, रागद्वेष भाव नाहि ।
शुद्ध उपयोग एक, भाव के करैया है ॥ विरता सुरूप ही की, व संवेद भावन मे । परम अतीन्द्रिय सुख नीर के बरैया है । देव भगवान सो स्वरूप, लखे घटही मे । ऐसे ज्ञानी संत, भव सिंधु के तिरैया है"।"
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