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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
तृतीय पद णमो आयरियाणं
"पंचाचारा सम्मगा, पंचिदिय दंति दप्पणिद् दलणा |
धीरा गुण गंभीरा आयरिया सरिसा होति ।' अर्थात् जो पंचाचार (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप व वीर्याचार) से युक्त हैं, जो पंचेन्द्रिय रूपी हाथियों के मान को दलित करनेवाले हैं, धीर हैं तथा (छत्तीस) गुणों से गंभीर है । आचार्य के छत्तीस गुण, इस प्रकार कहे गए हैं ।
"पंचिदिय संवरणो तह णव विह बंभचेर गुत्ती धरो | चउविह कसाय मुक्को, इह अट्टारस गुणेन्हि सजुत्तो | पंच महव्वय जुत्तो, पंच विहायार पालण समत्थो ।
पंच समिओ तिगुत्तो, छत्तीस गुणो गुरू मज्झं ।' अर्थात् पांच महाव्रत, पांच आचार, पांच समिति, तीन गुप्ति पांच इन्द्रिय संवर, नववाड सहित ब्रह्मचर्य पालक व चार कषाय से मुक्त । इस प्रकार छत्तीस गुण से युक्त होते हैं । आचार्य के 36 गुण इस प्रकार भी कहे गये हैं - 12 तप, 10 धर्म, 5 आचार, 6 आवश्यक व 3 गुप्ति । आचार्य की प्रमुख विशेषता होती है -
"जह दीवो दीव सयं, पइप्पइ जसो दीवो |
दीव तमा आयरिया, दिव्वंति परं च दिप्पंति"I" अर्थात् जिस प्रकार दीपक स्वयं प्रकाशित होकर, अन्य सैकडों दीपकों को प्रकाशित करता हैं उसी प्रकार आचार्य ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा स्वयं प्रकाशित होकर अन्य को प्रकाशित करते हैं ।
विशेष - 1. आचार्य चतुर्विध संघ के नायक व संचालक होते हैं । 2. आचार्य के नाम के आगे '108' लिखने का एक कारण उनके द्वारा पापों के 108 दरवाजो को बंद कर '108' उत्तम गुणों से शोभित होता है । बिगत इस प्रकार जाने 4 कषाय 3 (आरंभ, संरभ व समारंभ) x 3 योग x 3 करण = 108 कुल । आचार्य चतुर्विध संघ नायक व संवाहक होते हैं । 3. संरभ - जीवहिंसा विषयक मन में भाव लाना । समारंभ - जीवों कों संताप देना । आरंभ -जीवो की हिंसा करने को कहते हैं । चतुर्थ पद णमो उवज्झायाणं
'अण्णाण घोर तिमिरे, दुरंत तीराम्हि हिंड माणाणं ।
भविदायुज्जोयरा, उवज्झाया वरम दि देंतु"।'' अर्थात् उस अज्ञान रूपी घोर अंधकार में जिसका ओर छोर पाना कठिन है । भटकनेवाले भव्य जीवों के लिए ज्ञान का प्रकाश देने वाले उपाध्याय उत्तम मति प्रदाता होते हैं । ये उपाध्याय कैसे होते हैं? शास्त्रकार कहते हैं
"बारसङग बिउबुदा, करण चरण जुओ ।
प्रभावण जोग निग्गहो, उवज्झाय गुण वदे" अर्थात् बारह अंग के अभ्यासी चरण और करण सत्तरी युक्त आठ प्रभावना द्वारा जैन धर्म को दिपानेवाले और तीन योग को वश में (विग्रह) करनेवाले ये पच्चीस गुण धारक उपाध्याय जी वंदनीय होते हैं ।
विशेषता- 1. उपाध्याय के पच्चीस गुण इस प्रकार भी कहे हैं - ग्यारह अंग बारह अंग व चरण सत्तरी, करण सत्तरी के ज्ञाता, इन पच्चीस गुणों सहित होते हैं । 2. ये स्व पर दर्शन के विज्ञाता, आगम व्याख्याता और श्रुतज्ञान के दाता होते हैं । 3. चरण सत्तरी अर्थात् साधुचर्या के 70 बोल अनुसार चारित्र पालन करना तथा करण
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