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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
गुरु मन्दिर के सम्मुख पू. आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का स्मृति मन्दिर है, जिससे आचार्य प्रवर श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. तथा उपाध्याय श्री मोहन विजयजी म.सा. की प्रतिमाएं हैं । यहां रत्न प्रतिमाओं का एक रत्न मन्दिर हैं । जिसमें 36 रत्नमय प्रतिमाएं विविध रंगों की विराजमान हैं । साथ ही सौधर्म बृहत्तपागच्छीय परम्परा की आद्य श्रमणी श्री विद्याश्रीजी, श्री अमरश्रीजी एवं श्रीमानश्रीजी आदि की चरण पादुकाएं विराजमान हैं ।
मन्दिरजी के मुख्य द्वार के समीप इस तीर्थ के विकास प्रणेता एवं प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. के शिष्यरत्न व्याख्यान वाचस्पति आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का सुन्दर समाधि मन्दिर है । समीप ही धर्मशाला के प्रांगण में इस तीर्थ के आधुनिक निर्माता, प्रेरक कविरत्न आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का भव्य समाधि मन्दिर हैं । उल्लेखनीय है कि इन दोनों गुरुदेवों का महाप्रयाण इसी तीर्थ भूमि पर हुआ है ।
देव-गुरु और धर्म की त्रिवेणी रूप श्री मोहनखेड़ा तीर्थ आज एक विशाल और भव्यतीर्थ के रूप में विकसित हो चुका है । मध्य प्रदेश के तीर्थों की यात्रार्थ आने वाले प्रत्येक यात्री संघों को इस तीर्थ से होकर जाना पडता है । यहां की पंचतीर्थों में मांडवगढ़, भोपावर, तालनपुर एवं लक्ष्मणी तीर्थों का यह मुख्य पांचवां तीर्थ है । यहां तीर्थ यात्रियों की सुविधार्थ 350 कमरों वाली विशाल एवं आधुनिक तीन धर्मशालाएं हैं । श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर चेरिटेबल ट्रस्ट की व्यवस्था में भाताखाता एवं भोजनशला आदि निःशुल्क सुविधायें यात्रियों को प्रदान की जाती है। यहां जैन धर्म की शिक्षा के लिये श्री आदिनाथ राजेन्द्र गुरुकुल का संचालन हो रहा है। साथ ही व्यावहारिक शिक्षण के लिये शासकीय मान्यता प्राप्त हाईस्कूल भी है, जिसमें लगभग 150 से अधिक छात्र-छात्रायें अध्ययन रहा है । वर्तमान में गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., संयम स्थविर मुनिराज श्री सौभाग्य विजयजी म.सा., ज्योतिषाचार्य मुनिराज श्री जयप्रभ विजयजी म.सा. मुनिराज श्री ऋषभचन्द्र विजयजी म.सा. आदि मुनिमंडल के मार्गदर्शन में तीर्थ क्षेत्र का विकास कार्य प्रगति पर है ।
स्वतंत्रता और आत्मक्ति जब तक प्रगट न कर ली जाय तब तक आत्म क्ति का चाहिये वैसा विकास नहीं हो सकता। भास्त्रों का कथन है कि सहन लता के बिना संयम, संयम के बिना त्याग, और त्याग के बिना आत्मवि वास होना असंभव है। आत्मवि वास से ही नर-जीवन सफल होता है। जिस व्यक्तिने नर-जीवन पाकर जितना अधिक आत्मवि वास प्राप्त कर लिया वह उतना ही अधिक भाांतिपूर्वक सन्मार्ग के ऊपर आरूढ हो सकता है। अतः संयमी-जीवन के लिये सर्व प्रथम मन को वा करना होगा। मन के वा होने पर इन्द्रियाँ स्वयं निर्बल हो जायंगी और मानव प्रगति के पथ पर चलने लगेगा।
श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
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