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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
स्वप्न - एक चिन्तन
-डॉ. कालिदास जोशी दैनिक जीवन में हम सबको जागृति, स्वप्न एवम् सुषुप्ति, इन तीनों अवस्थाओं का लगातार अनुभव होता रहता है । इन तीनों का साहचर्य तथा क्रम स्वाभाविक, अकृत्रिम, सहज होता है इसलिये हम प्रायः इनके संबंध में अलग से सोचते नहीं हैं । प्राचीन भारतीयों ने इन तीनों अवस्थाओं के बारे में गहराई से चिन्तन किया । वेदान्ती विचारकों ने स्वप्न की अवस्था में विशेष रूचि दिखायी, तथा अपने 'ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या इस सिद्धान्त को स्पष्ट करने के लिये कई बार स्वप्न के उदाहरण का सहारा लिया । उनका हमेशा यह आग्रह रहा कि जैसे स्वप्न के पदार्थ स्वप्न की अवस्था के जारी रहने तक ही विद्यमान रहते हैं, स्वप्न टूटने पर जागृति आने पर उनका कोई अस्तित्व नहीं रहता, ठीक उसी प्रकार हमें दैनिक व्यवहार में प्रतीत होने वाली पदार्थों की विविधता अनेकता भी पारमार्थिक दृष्टि जग जाने पर बाधित हो जाती है । तब केवल सच्चिदानंद ब्रह्म की एक मात्र सत्ता की अनुभूति होती है ।
स्वप्न की अवस्था का विचार हमेशा जागृति तथा निद्रा के परिप्रेक्ष्य में हुवा है । जागृति में दो बातें रहती है। प्रथम बात है हमारे ज्ञानेंद्रियों का उनके विषयों से संपर्क - जैसे चक्षु का रूप या दृश्य से, श्रोत्र का शब्द, अर्थात ध्वनि से, त्वचा का स्पर्श से रसना का रस से, तथा ध्राण का गंध से संपर्क | दूसरी बात है इस संपर्क के फलस्वरूप बोध, अनुभव या प्रत्यय का मनःपटल पर अंकित हो जाना, अर्थात उस अनुभव की समाप्ति के बाद भी संस्कार रूप से उसका मन में विद्यमान रहना। उस संस्कार के पुनः जागृत होने से उस अनुभव की स्मृति जागृत हो उठती है। निद्रा की अवस्था में इन दो प्रक्रियाओं में से दूसरी प्रक्रिया (अर्थात प्रत्यय का अंकन) घटित नहीं होती । इसलिये निद्रा में अनुभूतियों के संस्कार नहीं बनते और न ही भविष्य में उन के पुनर्जागरण की कोई संभावना बनती । यदि ऐसा नहीं होता तो किसी सोये हुवे व्यक्ति के पास खड़ी आवाज में कोई पाठ, कथा या कविता पढ़कर सुनाई जाने
से जैसे कोई जागने वाला व्यक्ति उसके अंश फिर से सुना सकेगा वैसे ही सोया हुवा व्यक्ति भी जग जाने पर उसी -प्रकार उसके अंश सुनाने में समर्थ होता । परंतु ऐसा कभी प्रत्यक्ष में दिखायी नहीं देता।
स्वप्न की अवस्था जागृति तथा निद्रा इन दोनों से भिन्न, फिर भी कुछ मामलों में दोनों से कुछ समानता रखनेवाली बीच की स्थिति है | जागृति के समान वह अनुभूतियों से युक्त अवस्था है । इन अनुभूतियों का निर्माण क्रम (Genesis) जागृति की अनुभूतियों से एकदम भिन्न होता है । स्वप्न की अनुभूतियाँ अत्यंत अल्पकालिक चंद मिनटों तक ही रहनेवाली होती हैं । प्रतिदिन के चौबीस घंटो में से हम जागृत अवस्था में यदि लगभग सोलह घंटे रहते हो तो 'स्वप्न' में केवल लगभग पंद्रह, बीस मिनट ही रहते होंगे । और फिर स्वप्न के अनुभव हम तुरन्त भूल भी जाते हैं । यदि हमारा जीवन क्रम ऐसा होता, जिसमें स्वप्न, निद्रा और जागृति में हमारा समान समय व्यतीत होता जैसे प्रतिदिन आठ आठ घंटे-तो फिर हमें किसी समय हम जागृत हैं कि स्वप्न देख रहे हैं इसका निर्णय करना बहुत ही कठिन हो जाता । स्वप्न जब तक जारी रहता है तब तक तो उसकी अनुभूतियां जागृति की अनुभूतियों जैसी ही लगती हैं । वे कम ठोस, अधिक तरल या अविश्वसनीय नहीं लगती । परंतु जग जाने पर वे नष्ट होती हैं और मन में उनकी स्मृतियां भी मंद होकर जल्द ही खत्म हो जाती हैं । इसलिये स्वप्न को आभासिक या प्रातिभासिक (illusory) समझा जाता है ।
स्वप्न के पदार्थों की प्रातिभासिकता की तुलना अन्य भ्रांतियों से की जाती है - जैसे मृगमरीचिका, सीप में रजत का आभास तथा कम रोशनी में रज्जु की जगह सर्प का अवभास । इन भ्रांतियों के स्वरूप वर्णन के संबंध में भारतीय तत्वचिंतकों के मन भिन्न-भिन्न हैं, तथा उन्होंने उसको अलग अलग नाम दिये हैं- जैसे अन्यथा ख्याति (न्याय वैशेषिक), सत् ख्याति (जैन दर्शन), विपरीत ख्याति (सांख्य-योग), आत्मख्याति (योगाचार बौद्ध), असत् ख्याति (माध्यमिक बौद्ध), अख्याति (प्रभाकर मीमांसा, रामानुज), तथा अनिर्वचनीय ख्याति (अद्वैत वेदाना) ।
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