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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
4 विशिष्ट योग विद्या :
स्व. मुनि श्री देवेन्द्र विजयजी म.सा. योगः कल्पतरूः श्रेष्ठो, योगश्चिन्तामणि परः || योगः प्रधानं धर्माणां, योगः सिद्रेः स्वयं ग्रहः 113711 कुण्ठी भवन्ति तीक्ष्णानि मन्मथास्त्राणि सर्वथा । योगवर्मावृत्ते चित्ते तपरिछद्रकाण्यपि 13911 योगः सर्वविपद्वल्ली, विताने परशुः शितः |
आमूलमंत्रतंत्र-व कार्मणं नितिश्रियः 115|| इस संसार में अनादिकाल से जड़वादी और आत्मोत्थानाकांक्षियों की आध्यात्मिक ये दो विचार-परम्पराएं प्रचलित हैं। दोनों विचारधारावादियों ने विश्व के चराचर सम्बन्धी समस्त प्रश्नों को समझने-समझाने का अत्यधिक प्रयत्न कर अपने-अपने सिद्धान्तों की उत्पत्ति की है । दोनों विचार-श्रेणियां छत्तीस (36) के अंक के समान अलग-अलग हैं। जड़वादी धारा के मानने वाले मानते हैं कि - इन्द्रियों का सुख ही वास्तविक सुख है । इसको प्राप्त करने के लिये किये जाते हुये प्रयत्नों में पाप-पुण्य की दरार वृथा है । नीति और अनीति का प्रश्न ढोंग मात्र है । सुख भोग के लिए यदि जघन्य से जघन्य कार्य भी किया जाय तो कोई हर्ज नहीं है | चूंकि शरीर भस्मीभूत हो जाने पर तो पुनरागमन है ही नहीं | यह तो वृक् पदवत् वृथा बनाया गया भ्रामक ढकोसला मात्र है । आधिभौतिक सुख ही वास्तव में जीवन का आनन्द है । अतः हे मनुष्यों, इसे प्राप्त करने के प्रयत्न करो।
इस जड़वादी मान्यता के ठीक विपरीत आध्यात्मिक पथानुगामी की मान्यता है । ऐहिक सुख उनकी दृष्टि में सर्वथा अनुचित हैं । ऐहिक सुख एकदम अवांछनीय हैं । अतः ये आस्तिक धर्म कहे जाते हैं । जैन, वैदिक और बौद्ध तीनों धर्म आध्यात्मिक भावप्रधान हैं । इन्द्रियजन्य विषय सुख को मानने वाले नास्तिक हैं - जैसे चार्वाक |
आर्यावर्त के आस्तिक दर्शन जैन, वैदिक और बौद्ध इन तीनों का सुख निरूपण लगभग समान है । तीनों का लक्ष्य आत्म-विकासक है । आध्यात्मिक सुख को प्राप्त करना, कर्म-मल का क्षय करना इन दो को तीनों धर्मों ने भिन्न-भिन्न ढंग से समझाया एवं बतलाया है ।
योग शब्द 'युज' धातु से करण और भाववाची घड्. प्रत्यय लगने पर बनता है - जिसका अर्थ है 'युजि च समाधौ याने समाधी को प्राप्त होना । योग यह एक महान् आत्म प्रगति का मार्ग है, जो वास्तव में आत्मा को अभिलषित स्थान-मोक्ष तक पहुंचाने में समर्थ है । जैन दर्शन में योग का अतीव महत्वपूर्ण स्थान है । जैन दर्शन प्रायः सम्पूर्ण रूपेण यौगिक साधनामय है | पातंजल योगदर्शन में 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध' से योग को चित्त की चंचल वृत्तियों का निरोधक कहा गया है । वैसे ही जैन दर्शन में योग को मोक्ष का अंग माना गया है - 'मुक्खेण जोयणाओ जोगो' याने जिन-जिन साधनों से आत्मा कर्मों से विमुक्त होकर निज लक्ष्यबिन्दु तक जाकर राग-द्वेष एवं काम क्रोध पर विजय प्राप्त करे उन-उन साधनों को योगांग कहा गया है । इस प्रकार आत्मोन्नतिकारक जितने भी धार्मिक साधन है वे सब योग के अंग है। __महर्षि पतंजलिकत योगदर्शन में कहा गया है कि योग के अष्टांगों की परिपूर्ण रीत्या साधना-अनुष्ठान करने से चित्त का अशुभ मल का नाश होता है और आत्मा में शुद्धभाव (सम्यग्ज्ञान-केवलज्ञान) का प्रादुर्भाव होता है । वे अष्टांग ये हैं - यम, नियम, आसन,प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ।
साधनाकर्ता व्यक्ति जितने-जितने अंश में योगानुष्ठान करता है उतने-उतने अंश में चित्त के अशुद्ध-मल का नाश होता है और जितने-जितने अंश में कर्ममल का क्षय होता है, उतने-उतने अंश में उसका ज्ञान बढ़ता है ।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति