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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ ।
आचार्य भगवंत जैन धर्म के दक्षव्यापारी शूरवीर है । यह पंक्ति पंडितलोक में प्रशस्त प्रशस्ति पाई हुई हैं । उसका कारण है कि विशाल भरतक्षेत्र में मात्र 251/2 आर्यभूमि है उसमें भी अनार्य प्रजा की बहुलता । फिर भी रत्न राशि जैसे संघ के संचालक आचार्य भगवंत हैं, उसमें से हमारे भी एक आचार्य भगवंत हैं । परमात्मा के विरह काल में आज शासन की धुरा को वहन कर रहे हैं । गुरुदेव शासन के शृंगार हैं । प्रभावक हैं, गीतार्थ हैं । अजैनों में जैनतत्त्व की ज्योत प्रगटाने में कुशल हैं ।
ऐसे आपश्री ने अनेकानेक शासन प्रभावना की । हमें चारित्र देकर अनेक उपकार किये हैं । आपका जीवन दिनों दिन यशस्वी हो । यही हार्दिक शुभेच्छा हैं ।
4हे गुरुवर वन्दन तुमको
साध्वी भक्तिगुणाश्री चमन वाले खिंजा के नाम से
कभी घबरा नहीं सकते | कुछ फूल ऐसे भी खिलते हैं
जो कभी मुरझाते नहीं || जैन धर्म का डंका बजाने वाले गुलाब के पुष्प को देखते ही दिल और दिमाग खुश हो जाता है । गुलाब का पुष्प सभी पुष्पों का राजा है । ऐसे ही गुरुवर श्री हेमेन्द्रसूरिजी सभी सन्तों में संयम साधना के मेरु समान है । उनके संयम की सौरभ देशभर में फैली हुई है । इसलिए उन्हें राष्ट्रसंत शिरोमणि कहा गया है । चारित्र एवं त्याग का रंग तो आपकी देह के कण-कण में समाया है । जैसे गुलाब के पुष्प पर भंवरे मडराते है वैसे आपकी सेवा में भक्तों की भीड़ लगी रहती हैं ।
आप ने अपनी सेवा की प्रगति के कारण आप अपने गुरुदेव के अंतरग शिष्य बनकर रहे । गुरुदेव के सान्निध्य में रहकर पू. गुरुदेव से बहुत कुछ प्राप्त भी किया है । आपने जो कुछ पाया है । शायद ही किसी अन्य शिष्य ने पाया है।
आपने अपने नाम के अनुसार अपना जीवन धन्य और कृतार्थ बना दिया । आपने जीवन जीने की सच्ची कला सीखी है । वैसे तो संसार में अनेक प्राणी जन्म लेते हैं और एक दिन दुनिया से बिदाई भी ले लेते हैं, किन्तु नाम उन्हीं का अमर रहता है जिन्होंने अपने जीवन में कुछ पाया हो और जनता के लिए लुटाया भी हो ।
आपने गुरुदेव से जो पाया वह जन सेवा जनता की भलाई के लिए उसे लुटा भी रहे है । समाज को आप से बहुत अपेक्षा है । आप चिरायु प्राप्त करके हमें तथा समाज को जन को अपना ज्ञान धन बांटते रहें । हमें सन्मार्ग दिखाते रहें। हमें कृतार्थ करते रहें । ताकि हम भी अपना जीवन धन्य बनाकर आपके आपके बताये पथ का अनुसरण कर जिन शासन की, जनता की सेवा करते रहे ।
आपकी महिमा को देखकर मैं तो आश्चर्य चकित हँ । जैसे गूंगे को गुड़ का स्वाद पूछे तो वह क्या बतायेगा। वैसे मंद बुद्धिवाली मैं आप का क्या गुणगान करूँ? फिर भी मैं कुछ भाव प्रकट करना चाहती हूँ एक समय लोहे का टुकड़ा रास्ते में पड़ा था । पारस पत्थर भेद दृष्टि नहीं रखता था । वह तो लोहे के टुकड़ा हो या पत्थर हो, दोनों को स्पर्श कराते ही सोना बना देता है । मैं भी लोहे के सदृश हूँ ।
आपके चरण कमल से सोना बन जाऊँ । यही मेरी शुभ भावना है । नदियां बडी पवित्र होती है और नाला छोटा पर दोनों का पानी समुद्र में जाता है । वहाँ कोई भेद नहीं होता इस प्रकार आपने मुझे अपने संप्रदाय के विशाल
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