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डॉ. वसुन्धरा शुक्ल
जैनधर्म या जैन दर्शन नाम ही जैनमत को आचारमूलक सिद्ध करता है जैन धर्म की विशेषता उसके व्यावहारिक पक्ष के कारण है। यद्यपि अन्य भारतीय दर्शनों के समान ही मुक्ति या कैवल्य इस दर्शन का भी लक्ष्य है तथापि जैन साधकों ने जीवन के व्यावहारिक पक्ष पर अत्यधिक बल दिया है श्रमण हो चाहे गृहस्थ, इस धर्म के अनुसार जीवन में तपश्चर्या अनिवार्य है। सम्पूर्ण जैन साधना सदाचार के उपदेशों से परिपूर्ण है। त्रिरत्न जैन साधना का मूलसूत्र है जीवन में ज्ञान अर्थात सम्यक् ज्ञान का होना अनिवार्य है ही, साथ में सम्यक् चरित्र का भी होना पर आवश्यक है। सम्यक चरित्र के बिना अर्थात् जीवन के सदाचार पक्ष के बिना ज्ञान किसी काम का नहीं रह जाता, इसीलिए कहा जाता है ज्ञानभार, क्रियां बिना
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
जैन दर्शन के अनुसार आचार का स्वरूप)
सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र इन तीनों को त्रिरत्न कहा जाता है जिस प्रकार रत्न से व्यक्ति विभूषित होता है तथा सुन्दर लगता है, उसी प्रकार उक्त तीनों गुणों से विभूषित व्यक्ति सर्वाग सुन्दर अर्थात् बाह्यान्तर सुन्दर लगता है, इसलिए इन्हें रत्न कहा गया है। सद्गुणों से ही जीवन में सौन्दर्य बढ़ता है आभूषणों से नहीं । त्रिरत्न जीवन के व्यावहारिक पक्ष को शुद्ध करता हुआ साधक को मोक्ष मार्ग की ओर ले जाता है । इसलिए आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में त्रिख्न को मोक्ष मार्ग कहा है । ये तीनों एक साथ मिलकर एक मार्ग बनाते हैं। इसी कारण तीनों पर एक साथ आचरण भी करना चाहिए। उमास्वामी के शब्दों में "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्ग: ।
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जैन दार्शनिकों ने आचार के पाँच भेद माने हैं- 1. सम्यग् दर्शनाचार, 2. ज्ञानाचार, 3. चारित्र्याचार, 4. तपाचार, 5. वीर्याचार ।
1) सम्यग्दर्शनाचार :
जो चिदानन्द शुद्धात्मक तत्व है वही सब प्रकार से आराधना करने योग्य है, उससे भिन्न समस्त पर वस्तुएँ त्याज्य हैं। ऐसी दृढ़ प्रतीति चंचलता रहित निर्मल अवगाढ़ परम श्रद्धा है, उसे सम्यक्त्व कहते है। उसका आचार अर्थात् उक्त स्वरूप परिणमन रूपी आचरण ही दर्शनाचार है और परम चैतन्य का विलास रूप लक्षण वाली, यह निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रूचि सम्यग्दर्शन है उस सम्यग्दर्शन में जो आचरण है अर्थात् परिणमन है वह निश्चय दर्शनाचार है।
जैन दर्शन में दर्शन शब्द अनाकार- ज्ञान का प्रतीक माना गया है और श्रद्धा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सही दर्शन, सही ज्ञान तक और सही ज्ञान सही आचरण तक ले जाने की क्षमता रखता है। अतः धर्म का मूल दर्शन है। इस दृष्टि से आप्तवचनों तथा तत्वों पर श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। आत्मपुरुष वह है जो अठारह दोषों से विमुक्त हो आप्त वचनों के प्रति श्रद्धान, रुचि, अनुराग, आदर, सेवा एवं भक्ति रखने से सत्य का साक्षत्कार होता है।
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष के प्रति श्रद्धा या विश्वास ही सम्यक्त्व है। आत्मा परद्रव्यों से भिन्न है, यह श्रद्धा ही सम्यक्त्व है। इस प्रकार सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए सच्चा गुरु एवं धर्मबुद्धि आवश्यक है, जिनके द्वारा यथार्थ - अयर्थाथ का विवेक उत्पन्न होता है।
सम्यक्त्व के पाँच लक्षण
4. अनुकम्पा - 5. आस्तिक्य
1. राम क्रोध, मान, माया तथा लोभ का उदय न होना
2. संवेग
मोक्ष की अभिलाषा
3. निर्वेद
संसार के प्रति विरक्ति
बिना भेदभाव के दुःखी जीवों के दुःख को दूर करने की भावना सर्वज्ञ वीतराग द्वारा कथित तत्वों पर दृढ़ श्रद्धा ।
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