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जम्बूस्वामी, प्रभवस्वामी, सय्यंभवस्वामी आदि आसनारूढ़ हुए यह परंपरा ढ़ाई हजार साल तक अग्रशील होती गई । विजय क्षमा सूरि, विजय देवेन्द्रसूरि, विजय कल्याण सूरि के उपरांत विजय प्रमोदसूरि के पट्ट पर विजय राजेन्द्रसूरि युग प्रधान - सम हुये ।
श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी की परम्परा में उनके पट्ट पर चर्चा चक्रवर्ती जैनाचार्य श्रीमद धनचंद्रसूरीश्वरजी हुए । वे उत्कृष्ट क्रिया पालक तथा विद्वता में अपने गुरु की इच्छाओं के प्रतिरूप थे । आगमों के रहस्य का इनने पारदर्शन कर रखा था तथा संघ में गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी के मूल्यों के संरक्षण में अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया था । इनके पट्ट पर जैनाचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज आसीन हुये । शांत, उदात्त व सरलता इनके मुख्य गुण थे । दीर्घ समय तक समाज को आपका मार्गदर्शन प्राप्त नहीं हो पाया । इसी पट्ट परम्परा की अगली प्रकाशमान कड़ी में श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज जैसे प्रभावी आचार्य हुये । आपको संघ ने व्याख्यान वाचास्पति की उपाधि से अलंकृत किया । श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी महाराज की प्रखरता का अन्य उदाहरण नहीं प्राप्त होता । आप भी अप्रतिम विद्वान थे एवं अभिधान राजेन्द्र कोश के मुद्रण में आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा । एक सुविशाल शिष्यवर्ग को भी आपने संयम जीवन की ओर अग्रसर किया । आपकी सज्झाएं, लावणियां, स्तवन, स्तुतियां लोक समूहों में आज तक गायी जाती है । आपके पट्ट पर जैनाचार्य श्रीमद् विजय विद्याचंद्रसूरीश्वरजी महाराज हुये जो उच्च कोटि के कवि तथा योगी के रूप में जाने गये । आपकी गुरु सेवा अनन्य थी । साथ ही आपका हृदय पुण्य सलिल की तरह पवित्र था । आपका उत्तराधिकार संघ ने ग्रंथ नायक जैनाचार्य श्रीमद् हेमेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज को अर्पित किया, जो वर्तमान में गच्छाधिपति हैं ।
इस परिप्रेक्ष्य में हम जब परम श्रद्धेय राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के जीवन वृत्त पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि वे अपने जीवन के 88 वसंत पार कर चुके हैं और संयमराधना के 64वें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं । आयु एवं संयमाराधना की यह उपलब्धि कम नहीं कही जा सकती । अपने सुदीर्घ संयम काल में परम श्रद्धेय आचार्यश्री ने बालकों में सुसंस्कार वपन करने और सेवा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है । इस अवधि में आपने अनेक मुमुक्षुओं को दीक्षाव्रत प्रदान किया, उपधान तप सम्पन्न करवाये । संघ तीर्थ यात्राएं निकलवाई और प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न करवाये । इस सुदीर्घ संयमकाल में परम श्रद्धेय आचार्यश्री ने कौन कौन सी लब्धियां उपलब्ध की? इस सम्बन्ध में हम कुछ भी नहीं कह सकते, क्योंकि यह सर्वविदित है कि जैन संत प्राप्त लब्धियों का कहीं कोई प्रदर्शन नहीं करते हैं और यही उनकी एक अन्य बड़ी विशेषता कही जा सकती है ।
परम श्रद्धेय आचार्यश्री की दीर्घकालीन संमयाराधना को ध्यान के रखते हुए उनके सम्मान में उनके अनुयायी वर्ग द्वारा उनके अभिनन्दन में एक ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना का अनुमोदन करना स्वाभाविक ही है । यद्यपि इस प्रकार के अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन एवं समर्पण श्रद्धेय आचार्यश्री की दीक्षा स्वर्णजयंती के अवसर पर किये जाने की भावना थी । उसके
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