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संपादकीय
जीवन को समझना आसान नहीं है । इसे समझने-समझाने में ऋषि-मुनियों ने अपना जीवन खपा दिया । जीवन की जटिलता को सुलझाने के अनेक प्रयत्न समाधान से आज तक दूर ही दिखाई देते हैं । लेकिन यह तो तय है कि जीवन की नियति चेतना है ।
सृष्टि के दो मूल तत्व हैं जड़ और चेतन । जड़ का अपना कुछ नहीं, निसत्व है वह । न अपने लिये कुछ कर सकता न अन्य के लिये । जड़ तत्व तो पूर्णतः पराश्रित है । किंतु चेतना पराश्रित नहीं । चेतन तत्व भी कम नहीं असंख्य हैं । सभी चेतन तत्व, जड़ से तो भिन्न है किंतु चेतन तत्वों में भी भिन्नता तो अवश्यमेव दिखाई देती है । सभी प्राणियों में चेतन तत्व है । मानव समस्त प्राणियों से अधिक चेतना युक्त है । मानव अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग सफलता से कर सकता है। उसमें सही और गलत को समझने की मेधा है । इसी मेधा ने जीवन को जटिल बनाया । मानव की इसी मेधा ने उलझन में डाल दिया है। आज हर तथ्य को विज्ञान की कसौटी पर कसने की परंपरा सी है । आज हम विज्ञान की रोशनी में जीवन को तलाश रहे हैं । विज्ञान की रोशनी भी सही-सही अर्थ सही-सही ज्ञान को स्पष्ट करने में असमर्थ सी है । विज्ञान की रोशनी तत्त्व को तलाशने वाले स्वयं भटक रहे हैं ।
ज्ञान की दिशा स्पष्ट नहीं हो पाती विज्ञान द्वारा । प्रयोग की सफलता चमत्कृत तो अवश्य करती हैं किंतु मानवीय मूल्यों को उठाव नहीं दे पाये । अणु-परमाणु के प्रयोग ने सृष्टि के सारे क्रम को भी गड़बड़ा दिया है, जहर से भर दिया है। विज्ञान की इस उपलब्धि से मानव निश्चिंत हो राहत की सांस तो ले ही नहीं सकता ।
जिस जगह चिंतन की धारा समाप्त हो जाती है, जहां विज्ञान के हाथ पैर नहीं पहुंच पाते वहां से अध्यात्म की धारा प्रस्फुटित व पल्लवित हो रही है । धर्म के सम्बल से व्यक्ति की दृष्टि भौतिक रूप से सम्पन्न कर आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है । अध्यात्म वास्तविक सुख, समता व समुन्नति की ओर चलने का एक मात्र समर्थ साधन है ।
धर्म का तात्पर्य किसी सम्प्रदाय, जाति, समूह की प्रगति या उन्नति से नहीं वरन् धर्म वह जो वास्तविकता है । जैनाचार्यों ने, जैन तत्वचिंतकों, ने तो स्पष्टतः कहा है 'वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। वत्थु सहावो धम्मो धर्म किसी कर्म काण्ड का नाम नहीं, धर्म स्वर्ग की सीढ़ियों पर चढ़ने का अनुष्ठान भी नहीं । धर्म तो प्रकृति है, स्वभाव है, निसर्ग हैं। शरीर तो नश्वर है, कभी भी किसी भी क्षण नष्ट हो जायेगा । किंतु प्रकृति या स्वभाव तो नित्य है, अनश्वर है। यही भेद विज्ञान धर्म है, इसी की धर्म के स्वरूप की पहचान है । व्यक्ति अपने वास्तविक स्वभाव को अपनी वास्तविक प्रकृति का साक्षात्कार कर ले तो अध्यात्म भावना का स्वतः आगमन हो जाता । जीवन के केन्द्र में आत्मा की प्रतिष्ठापना जीवन की वर्णमाला का आद्य अक्षर है । विज्ञान और अध्यात्म में टकराव की स्थिति निर्मित ही नहीं होती यदि अध्यात्म तत्व को महत्व दिया होता । विज्ञान भौतिक
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