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श्री राष्टसंत शिरोमणि अभिनंदन पंथ
अनुयायी था । वह बड़ा धर्मात्मा, योग्य संगठक, सरल और उदार था । उसने शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थों की संघ-यात्राओं पर काफी धन व्यय करके संघपति का पद प्राप्त किया था तथा मांडवगढ़ में 72 काष्ठमय जिनालय निर्मित करवाये थे जिनमें अनेक धातु चौबीसी-पट्ट रखवाये थे।
महमूद खिलजी के समय का एक अत्यधिक उल्लेखनीय व्यक्तित्व संग्रामसिंह सोनी था । यह पूर्व वर्णित नरदेव सोनी का पुत्र था तथा महमूद खिलजी के समय खजांची के पद पर नियुक्त था । संग्रामसिंह सोनी श्वेताम्बर मतानुयायी जैन (ओसवाल) था । महमूद खिलजी के द्वारा राणा कुम्भा और दक्षिण के निजाम के साथ लड़े गये युद्धों में संग्रामसिंह सोनी ने मदद की और कीर्ति अर्जित की । संग्रामसिंह सोनी राजनीतिज्ञ ही नहीं, वरन् विद्वान भी था | उसने 'बुद्धिसागर' नामक ग्रन्थ की रचना भी की थी । इसने एक हजार स्वर्ण मुद्राएं व्यय करके अलग-अलग स्थानों पर ज्ञान भण्डारों की स्थापना की थी । इसे सुलतान ने "नक्द-उल-मुल्क' की उपाधि दी थी । यह वही संग्रामसिंह सोनी है जिसने मक्सी पार्श्वनाथ तीर्थ के मंदिर का निर्माण करवाया था।
मांडव में सन् 1498 ईस्वी में पुनर्लिखित कल्पसूत्र में महमूद खिलजी के समय के एक और जैन परिवार का उल्लेख आया है । इस परिवार में जसवीर नामक श्रेष्ठी का उल्लेख है जो बड़ा दानी था और जिसने बावन संघपतियों की स्थापना की थी । उसे संघेश्वर की उपाधि प्राप्त थी। गयासुद्दीन खिलजी (1469-150 ! ईस्वी)
महमूद के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र गियाथशाह, गयासुद्दीन खिलजी के नाम से मालवा का सुलतान बना । यह एक विलासी किन्तु कला-प्रेमी शासक था । यद्यपि वह धार्मिक दृष्टि से कट्टर था, फिर भी जैन धर्म के प्रति वह सहिष्णु और उदार था । बहुत संभव है कि अत्यधिक विलासी होने के कारण सदैव धन की आवश्यकता पड़ती रही हो और इस कारण वह जैनियों के प्रति अधिक उदार हो गया है । उसके समय भी जैन कल्पसूत्रों का पुनर्लेखन होता रहा । भट्टारक सम्प्रदाय उसके समय में विशेष रूप से पल्लवित हुआ । सूरत शाखा के भट्टारक मल्लीभूषण उसी के समय मांडव में आये थे । भट्टारक श्रुतकीर्ति ने मालवा के मांडव और जेरहट नगर में अपने ग्रंथों की रचनाएं की।
गयासुद्दीन के शासन काल में मालवा के जवासिया ग्राम में एक प्राग्वाटज्ञातीय परिवार था । इस परिवार के सदस्य बड़ी धार्मिक प्रकृति के थे । इस परिवार के सदस्यों ने तपागच्छ-नायक श्री लक्ष्मीसागर सूरि के करकमलों से सुमतिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई थी । जिस देवकुलिका में यह बिम्ब प्रतिष्ठित करवाया गया था, उसे काफी व्यय से बनाया गया था ।
इसी प्रकार गयासुद्दीन के राज्य में मांडव में सूरा और वीरा नाम प्राग्वाट-ज्ञातीय दो नर-रत्न निवास करते थे । वे बड़े उदार व दानी सज्जन थे । वे जिनेश्वर देव के परमभक्त थे । इन भाइयों ने गयासुद्दीन खिलजी की आज्ञा प्राप्त कर सुधानन्द सूरि के तत्वावधान में मांडवगढ़ से श्री शत्रुजय महातीर्थ की यात्रा करने के लिये संघ निकाला था जो सिद्धाचल तीर्थ तक पहुंचकर सकुशल मांडवगढ़ आया था ।
गियाथशाह के समय मुंजराज नामक एक जैन विद्वान् खालसा भूमि की देखरेख के लिये वजीर नियुक्त किया गया था । इसे मुंज बक्काल भी कहते थे । राज्य की ओर से उसे "मफर-उल-मुल्क' की उपाधि दी गई थी। मंडन कवि के वंशज मेघ को गयासुद्दीन खिलजी ने मंत्री पद दिया था । मेघ को “फक्र-उल-मुल्क' की उपाधि प्राप्त थी । मेघ का भतीजा पुंजराज था । वह भी एक उच्च राज्याधिकारी था । उसे "हिन्दुआराय' वजीर के नाम से जाना जाता था। प्रशासक होने के साथ-साथ यह बड़ा विद्वान् भी था । सन् 1500 ईस्वी में उसने "सारस्वत प्रक्रिया' नामक व्याकरण की रचना की थी । उसी की प्रेरणा पाकर ईश्वरसूरि ने 'ललितांग-चरित' नामक ग्रंथ की रचना की थी।
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