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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन राय
सम्यग्दर्शन के दो रूप व्यवहार और निश्चय
सम्यग्दर्शन के दो रूप क्यों ?
जीव की सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप विशुद्धि को अणगार धर्मामृत में धर्म कहा गया है। परन्तु इस धर्म का आचरण केवल आत्मा से नहीं हो सकता। वैसे ही आत्मा से रहित केवल शरीर से भी नहीं हो सकता। इसलिए जीवन के बाह्य और आभ्यान्तर इन दो रूपों की तरह सम्यग्दर्शन के भी बाह्य और आभ्यान्तर ये दो रूप है।
आभ्यान्तर रूप सम्यग्दर्शन की आत्मा है और बाह्य रूप है सम्यग्दर्शन का अंगोपांगयुक्त शरीर सम्यग्दर्शन के इन दोनों रूपों की साधक- जीवन में आवश्यकता है। सम्यग्दर्शन के आभ्यान्तर रूप के बिना आत्म शुद्धि नहीं हो सकती और बाह्य रूप के बिना व्यक्ति की व्यवहार शुद्धि नहीं हो सकती।
-अशोक मु
यों देखा जाय तो सम्यग्दर्शन आत्म शुद्धि, आचरण शुद्धि तथा ज्ञानशुद्धि के मार्ग पर चलने की पहली सीढ़ी है। इसी को सम्यक्त्व कहा जाता है।
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सम्यक्त्व का अर्थ है ठीक मार्ग को प्राप्त करना जो जीव इधर उधर भटकना छोड़कर आत्मविकास के सही रास्ते को प्राप्त कर लेता है। आत्म शुद्धि का पावन पथ प्राप्त कर लेता है उसे सम्यग्दृष्टि या सम्यक्त्वी कहते है। ठीक मार्ग को प्राप्त करने का अर्थ है मन में पूरी श्रद्धा होना कि यही मार्ग कल्याण की ओर ले जाने वाला है। उस मार्ग पर चलने की रुचि और प्रतीति होना साथ ही विपरीत मार्गों का परित्याग करना। यही कारण है कि जीव के अन्तर और बाह्य दोनों की शुद्धि के लिए निश्चय सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन जैन शास्त्रों में बताया गया है।
सम्यग्दर्शन का बाह्य रूप है देव / गुरु और धर्म में श्रद्धा रखना अथवा सात तत्वों या नौ पदार्थों पर श्रद्धा रखना। इसका आभ्यन्तर रूप है- निश्चय, सम्यग्दर्शन, जिसका अर्थ होता है - आत्मा की वह विशुद्धता, जिससे सत्य या तत्व को जानने और निश्चय पूर्वक श्रद्धा करने को स्वाभाविक अभिरुचि जागृत हो जाये।
वास्तव में देखा जाये तो बाह्य रूप आभ्यन्तर रूप की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है जब आत्मा में विशेष प्रकार की शुद्धि आती है तो जीव में सत्य को जानने की स्वाभाविक रुचि प्रकट होती है उस शुद्धि से पहले जीव सांसारिक सुखों में फंसा रहता है।
जीव की सर्वप्रथम शुद्धि कैसे किससे ?
प्रश्न होता है जीव में पहले पहल उस प्रकार की शुद्धि कैसे किस प्रकार होती है ? इस प्रश्न के लिए संक्षेप में आत्मा का स्वरूप और उस के संसार में भटकने के कारणों को जानना आवश्यक है।
आत्मा अनादि अनन्त है तथा वह अपने स्वाभाविक गुण, ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य (शक्ति) की अनन्तता से युक्त है वह अजर अमर है। वस्तुतः वह अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त भाक्ति का भंडार है। परन्तु कर्म बंध के कारण आत्मा के ये गुण दब गये है। कर्मों के आवरण के कारण अल्पज्ञ, अल्पद्रष्टा, अल्प सुखी और आत्म शुद्धि वाला बना हुआ है। कर्मों के आवरण दूर होते ही आत्मा शुद्ध हो जाता है। उसके स्वाभाविक गुण पूर्णतया प्रगट हो जाते है। कर्म दो प्रकार के होते है। एक द्रव्यकर्म जो पुदगल द्रव्य के वे परमाणु (कार्मण वर्गनाएँ) हैं। जो आत्मा के साथ संबद्ध होकर उसकी विविध शक्तियों को कुठित कर देते है। दूसरे भाव कर्म (रागद्वेष मोहादि ) है जो क्रोधादि कषायों के संस्कारों के कारण आत्मा को बहुमुखी बनाये रखते है उसे अपने स्वरूप का भान नहीं होने देते।
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आत्मा की अनन्त शक्तियों को आवृत कर देने वाला कर्मावरण इतना विचित्र और विकट है कि वह आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रकट नहीं होने देता सूर्य का प्रखर प्रकाश मेघाच्छन्न होने से जैसे अप्रकट रहता है वैसे ही कर्मों के आवरण के कारण आत्मा की अनन्त शक्ति भी प्रकट नहीं हो पाती। किन्तु जैसे सघन मेघावरण होने पर भी सूर्य की आभा अत्यन्त क्षीण रूप से प्रकट रहती ही है, उसी प्रकार कर्मावरण होते हुए भी आत्मा की शक्ति का सूक्ष्म अंश तो प्रकट रहता ही है उसी के कारण जीव की पहचान होती है।
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